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68/चिद्काय की आराधना
'ज्ञानार्णव स्वरूपोऽहम्' समुद्र में उठती जल की तरंगें। हैं अभिन्न जल से जल की उमंगें।। कर्मक्षयात् जो उठे ज्ञान की लहरें।
वे हैं तरंगें निज की निज में उमंगे।। समस्त ज्ञेय पदार्थों के समूह रूपी रस को पी लेने की अतिशयता से जो मानो उन्मत्त है, जिसकी निर्मल से भी निर्मल केवलज्ञान पर्यायें स्वयमेव उछलती हैं, ऐसा यह भगवान आत्मा, जीवास्तिकाय, अभूतपूर्व अद्भुत निधि वाला, चैतन्य रत्नाकर, ज्ञानार्णव स्वसंवेदन पर्याय रूपी तरंगों के द्वारा उछलता है।
मैं अखंड ज्ञानसमुद्र स्वरूप हूँ। भगवान आत्मा ज्ञानसमुद्र है, एक केवलज्ञान रूप ही है। कर्म के निमित्त से ज्ञान गुण परलक्ष्यी मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय रूप जघन्य परिणमन करता है, जो जीव का स्वरूप नहीं है और रागादि रूप अशुद्ध परिणमन कराकर नूतन कमों का बंध करता है। कहा भी है
'अनादि से जीव को कर्म का सम्बन्ध है। कर्म के सम्बंध से देह होती है, देह से इन्द्रियाँ होती हैं। इन्द्रियों से विषय ग्रहण होता है, विषय ग्रहण से राग, द्वेष, मोह होता है। राग, द्वेष, मोह से पुनः कर्म का संबंध होता है। इस प्रकार बीजांकुर न्याय से जीव का संसार चक्र चलता रहता
___हे भव्य जीव! यह संसार चक्र भयानक है। इसमें वचन अगोचर नाना दुःखरूप ज्वालाएं धधकती हैं। इस संसार चक्र से मुक्त होने के लिये मनइन्द्रियों से विषयों का ग्रहण मत करो और अंतर्मुख होकर अपनी चिद्काय का ही सतत ग्रहण करो। इससे रागादिरूप स्निग्ध परिणाम नहीं होने से कर्म का बंध नहीं होगा और पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होकर परम पद मोक्ष की स्वयमेव प्राप्ति होगी। वह परम पद मोक्ष ही तुम्हारा स्वरूप है। संसार में विचरण करना तुम्हारा स्वरूप नहीं है।