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चिद्काय की आराधना/65
'चैतन्यपुंज स्वरूपोऽहम्' चैतन्य पुंज सु अखंड, ये जीव म्हारा। अविभागी अंश, चित्ज्योतिर्मय पिटारा।। रहता प्रकाशित, मणि सम ज्ञान धारा।
लेता जो आश्रय, उसे भव सिंधु तारा।। मैं मुक्ति का पथिक अब चैतन्य, पुंज शुद्धात्मा से भिन्न सकल विभाव भावों को छोड़कर चैतन्य शक्ति मात्र निज दिव्यकाय, आत्मा का स्पष्टतया अवगाहन करता हूँ; विश्व के ऊपर स्फुरायमान होते हुए परम उत्कृष्ट आत्मा का अपनी आत्मा में, चिद्काय में अनुभव करने का परम पुरूषार्थ करता हूँ।
यह जीवद्रव्य सर्वस्व सारभूत अनुभूति स्वभावी है। यह तीन लोक प्रमाण असंख्यात प्रदेशी है। इसके प्रत्येक प्रदेश में चैतन्य शक्ति अनवरत रूप से प्रवाहित है। मैं शुद्धात्मा चैतन्य पुंज स्वरूप हूँ। मैं सतत चैतन्य पुंज निज जीवास्तिकाय का आश्रय करता हूँ। अपने उपयोग को अपनी चिद्काया में लगाकर जन्म, मरण, कुल योनि आदि विकल्पों को नहीं करता हूँ; निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर निर्दोष चिन्मात्र, चैतन्य पुंज भगवान आत्मा को प्राप्त करता हूँ। ___ भगवान की वाणी में यही आया है कि तुम स्वयं शक्ति रूप से भगवान हो। भगवान आत्मा चिदानन्द प्रभु तुम्हारी ही देह में मौजूद है। तुम बाहर कहाँ अपने भगवान को खोज रहे हो? तुम्हारा भगवान तुम्हारी ही आभ्यंतर काया है, जो अन्तर्दृष्टि से देखने पर स्वसंवेदन रूप से अनुभव में आती है। __ हे आत्मन्! अनन्त सुख की बाधक राग-द्वेष प्रणाली का त्याग करो। अपने उपयोग को अपनी चिद्काय के बाहर मत जाने दो। बहिर्मुखता ही दुख का कारण है। अब मैं परमार्थभूत परम ज्योतिस्वरूप निज जीवास्तिकाय का आश्रय लेता हूँ, नेत्र बन्द कर ध्यान मुद्रा में बैठकर उसी को निहारता हूँ, उसी में तल्लीन
होता हूँ।