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62/चिद्काय की आराधना
'चैतन्य रसरसायन स्वरूपोऽहम्' रस के रसायन बना, तुम खूब खाओ। होगी न तृप्त, यह जिह्वा सच तो मानो।। चैतन्य शांत सुधा रसायन को जो चाखो।
आनन्दकन्द सुखानन्द सुमोक्ष पाओ।। खट्ठा-मीठा आदि पंच रसों से बने रसायन जड़ हैं और पुद्गल इन्द्रियों को पुष्ट कर जीव को विषय-कषायों में फँसाते हैं, किन्तु मेरी चिद्काय स्वसंवेदन से सेवन करने पर अपने को वीतराग करती है, पुष्ट करती है। रसरसायन सेवन करने पर नष्ट हो जाते हैं, किन्तु मेरी चिद्काय सेवन करने पर नष्ट नहीं होती है।
मेरी चिद्काय ही वास्तविक रस रसायन है। अतः मैं मुक्ति का पथिक पुद्गल इन्द्रियों के पोषक जड़ रसो को त्याग करता हूँ और चैतन्य रस से पूर्ण आनन्द रसायन, निज चिद्काय, का सेवन करता हूँ। मेरी चिद्काय चैतन्य रस . रूप है। ___ प्रभु! तू स्वतंत्र है, परिपूर्ण है, वीतराग है, सिद्ध है; किन्तु तुझे अपने स्वरूप की खबर नहीं है। इसलिये तुझे शान्ति नहीं मिल रही है। भाई! वास्तव में तू अपने घर को भूला हुआ है, मार्ग को भूल गया है, दूसरे के घर को तू अपना घर मान बैठा है, किन्तु पर घर में कभी भी तुझे शाति मिलने वाली नहीं है और कभी भी अशांति का अन्त होने वाला नहीं है। तेरा घर तेरी ही चैतन्य काया है, जो प्राप्त पुद्गल देह प्रमाण है, उसी में अपने उपयोग को जोड़ने का अभ्यास कर, जिससे तुझे शांति मिलने वाली है।
अनादिकाल से आत्मा ने पर का कुछ नहीं किया, अपने को भूलकर मात्र पर की ही चिंता की है। अब तो अपने स्वरूप की, अपने चिद्काय की. आराधना कर और पर की चिंता को छोड़। अन्तरात्मा बनने से पर की चिंता छूट जायेगी और अपनी दिव्यकाय में शांति का अनुभव होगा।