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52/चिद्काय की आराधना
.. 'निदान शल्य विभाव परिणाम शून्योऽहम्' मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने। जो कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने।। ज्यों-ज्यों भोग संजोग मनोहर, मनवांछित फल पावे।
तृष्णा नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर जहर की आवे।। देखे, सुने, अनुभव में आये हुए भोगों की प्राप्ति की आकांक्षा करना निदान शल्य है। निश्चय से मेरा आत्मा निदान शल्यरूप विभाव परिणाम से शून्य है।
हे जीव! तूने दान, पूजा आदि अनुष्ठान किये, परन्तु उनके फल की चाह कर अनन्त सुख के साधन को क्षणिक सुख की चाह में लुटा दिया। इसप्रकार शुभ कार्यों को भी संसार का कारण बना लिया।
मुक्ति का पथिक विचार करता है कि ये भोग मुझे संसार में नाना असह्य दुःखों को देते हैं। इसलिये मैं पाँचों इन्द्रियों के विषय-भोगों से अपने आपको . छुड़ा कर परम अनुपम आनन्द से भरपूर अपनी दिव्यकाय का अनुभव करता हूँ। जब मैं बाहर से अपने उपयोग को हटाकर भीतर की ओर करूँ, तभी अनन्त सुख से परिपूर्ण शुद्ध चिद्काय मुझे प्राप्त होती है। इसलिए बाहरी विषय-भोगों से अपने उपयोग को हटाकर मैं देह में विराजमान परम आनंदमय निज चिद्काय का ध्यान करने का प्रयत्न करता हूँ। . ___ अनादि से जीव को भोगों का ही संस्कार है। इसलिये जरा सा प्रमाद होते ही उपयोग भोगों की ओर चला जाता है। प्रयत्न से ही उपयोग अपनी चिद्काय की ओर आता है।
बस! अपने उपयोग को अपनी चिद्काय के सन्मुख करना है। अन्य कुछ भी नहीं करना है। कहीं बाहर नहीं जाना है। अपने ही पुद्गल शरीर में अपनी अनुभवगोचर चिद्काय है, आभ्यंतर शरीर है, जीवास्तिकाय है, उसमें अंतर्दृष्टि से अपने उपयोग को लगाना है। प्रतिदिन यही अभ्यास करना है।