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चिद्काय की आराधना/43
'रसनेन्द्रिय विषय व्यापार रहितोऽहम्' हे जीव! रसना इन्द्रिय के लोलुपी बन तूने खट्टा, मीठा, कड़वा, कषायला व चरपरे रस का स्वाद लेते हुए उसे ही आत्मा का भोजन माना। स्वात्माश्रित चिदानन्द ही तेरी भूख मिटायेगा, इसका विचार तूने कभी नहीं किया। ___ भोजन ग्रहण करने से इन्द्रियाँ पुष्ट होती हैं। इन्द्रियों से जीव अपनी चिद्काय से च्युत होता है और रागादिरूप परिणमन कर नूतन कर्मों का बंध करता है। __ हे भव्य! रसना इन्द्रिय जनित विषय सुख लेने के लिये तुमने विविध व्यंजन खाये, परन्तु तुम्हारे दुःखों का अभाव नहीं हुआ, अपितु दुःखों की वृद्धि ही हुई। तुम्हें अनन्त काल से अतीन्द्रिय सुख की चाह है, उस चाह की पूर्ति करने की तुमने कभी चिन्ता नहीं की। इस चाह की पूर्ति निज चिद्काय का अनुभव करने से ही होगी।
हे भव्य! आहार वर्गणा पुद्गल है। परमार्थ से अरूपी आत्मा को रूपी आहार वर्गणा का आहार नहीं होता। इसलिये आहार के प्रति उपेक्षा रखो। अल्प प्रासुक आहार लेकर आत्मा के अनुभवरूप रहने का पुरुषार्थ करो। सदा निज चित्कायामृत का पान करो। कहा भी है
'यदि वह आत्मा दो घड़ी पुद्गल द्रव्य से भिन्न अपने शुद्ध स्वरूप अर्थात् अपनी ही चिद्काय का अनुभव करे, उसमें लीन होकर परीषह के आने पर भी नहीं डिगे तो घातिया कर्मों का नाश करके अनन्त चतुष्टय प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त हो। आत्मानुभव की ऐसी महिमा है।'
रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करने के नेत्र बन्द कर अपने उपयोग को रसना इन्द्रिय पर लगायें। हे भव्य! निज चिद्काय को बारम्बार लक्ष्य में लेकर उस की रुचि उत्पन्न कर। अपनी चिद्काय का ध्यान करने से तुझको अतीन्द्रिय आनन्द रस का भोग होगा और जड़ रस का प्रेम छूट जायेगा।