________________
चिद्काय की आराधना/37
'क्रोध कषाय रहितोऽहम्' क्षमा और शांति से सुखी रहै सदैव जीव। क्रोध में न एक पल रहै सुख चैन से।। आवत ही क्रोध अंग-अंग से पसेव गिरे।
होठ डसे दाँत घिसै, आग झरै नैन से।। हे भव्य! क्रोध कषाय जीव की स्वाभाविक परिणति नहीं है। क्रोध कर्म का निमित्त पाकर जीव की पर्याय में क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध विभाव परिणति है, क्षमा जीव का स्वभाव है। शांति में, क्षमा में यह जीव अनन्त काल रह सकता है, किन्तु क्रोध में अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं रह सकता है। शांति, क्षमा आत्मा के शाश्वत गुण हैं, आत्मा के स्वभाव हैं। क्रोध आत्मा की क्षणिक परिणति है। क्रोध से आत्मा की शांति भंग होती है और अशुभ कर्मों का बंध होता है।
मैं स्वभाव से क्रोध परिणाम से शून्य हूँ। शाश्वत वस्तु मेरी दिव्यकाय ही है। निश्चय से क्षणिक विभाव से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है।
भाई! पर द्रव्यों का लक्ष्य कर-कर तू अनादिकाल से संसार में भ्रमण कर रहा है। पाप कर्मों के उदय से अनिष्ट अनुभव में आने वाले पदार्थों का संयोग होता है और उनका लक्ष्य करने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से बचने के लिये तू अपने अन्तर में अपने स्वरूप का, अपनी चिद्काया का, निज जीवास्तिकाय का, निज शुद्धात्मा का लक्ष्य कर। छद्मस्थ अवस्था में पूरी चिद्काय एक साथ अनुभव में नहीं आती है। इसलिये अपने प्रदेशों को, अंग-उपांगों को क्रमशः देख, उन्हीं में लीन होने का प्रयत्न कर। प्रभु! तू पर द्रव्यों को मत देख। अमूर्तिक प्रदेशों का पुंज प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणों का धारी अनाधि-निधन वस्तु तू स्वयं आप है। जिनवर की तरह ध्यान मुद्रा में बैठकर अन्तर्दृष्टि करके अपनी दिव्य काया को देख। इसी से तुझे शांति का अनुभव होगा। हे भाई! अपनी चिद्काय का आश्रय कर क्रोध कषाय का अभाव करो।