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चिद्काय की आराधना/33 सुखी हो। यह उत्तम अवसर बारम्बार प्राप्त नहीं होता। इसलिये इसे न गँवा और विषयों के मोह का त्याग करके मोक्ष प्राप्ति का उपाय कर।
रेजीव। तू अनादिकाल से बहिरात्मपने के कारण दुःखी होरहा है। अंतरात्मपने रूप यथार्थ पुरुषार्थ कर ही तू सुखी हो सकता है। निज जीवास्तिकाय और उसका सुख पैर के अंगुठे से लेकर मस्तक पर्यंत ही है, ऐसा जानकर निज जीवास्तिकाय में ही अपने उपयोग को लगा। जो लोग बाह्य पदार्थों में ही अपना उपयोग लगाते हैं, उनको परमार्थ सुख का अनुभव नहीं होता। वे दुःख का ही अनुभव करते हैं।
अपने घर को देख बावरे, सुख का जहाँ खजाना है। क्यों पर में सुख खोज रहा है, क्यों पर का दीवाना रे।। माटी के ये खेल-खिलौने, माटी तन की रानी रे। माटी का तन माटी का मन, माटी की रजधानी रे ।। माटी का यह पुतला तेरा, माटी भरा बिछौना रे। . पर परिणति पर भाव निरखता, आतम तत्त्व को भूला रे। पर भावों में सुख-दुःख माने, झूल रहा भव फूला रे।। सहजान्दी रूप तुम्हारा, जग सारा बेगाना रे । चिन्तामणि सा नर भव पाया, कल्पवृक्ष सा जिनवृष रे।। गंवा रहा है रतन अमोलक, क्यों विषयों में फंस-फंस रे। बिखर जायेगा एक दिन तेरा, सारा ताना-बाना रे।। चारों गतियों में घूम चुका है, अब तो निज का ध्यान धरो। विषय हलाहल बहुत पिया है, अब समकित रस पान करो। अपने क्षेत्र की छाँव बैठ जा, बहुत दूर नहीं जाना रे। त्रस पर्याय स्थावर बदलता, किये मोह की हाला रे। । कभी स्वर्ग के आंगन देखे, कभी नरक की ज्वाला रे।। चौरासी के पथिक तुम्हारा, शिवपुर पास ठिकाना रे। क्यों पर में सुख खोज रहा है, क्यों पर का दीवाना रे।।