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.. चिद्काय की आराधना/27 'हे अन्ध प्राणियों! अनादि संसार से लेकर पर्याय-पर्याय में यह रागी जीव सदा मत्त वर्तते हुए जिस पद में सो रहे हैं वह पद अपद है, अपद है; तुम्हारा पद नहीं है, ऐसा तुम समझो। इस ओर आओ, इस ओर आओ; यहाँ निवास करो। तुम्हारा पद यह है, यह है; जहाँ शुद्धशुद्ध चैतन्य धातु निजरस की अतिशयता के कारण स्थायी भावत्व को प्राप्त है, अविनाशी है।'
जैसे कोई महान पुरुष मद्यपान करके मलिन स्थान पर सो रहा हो, उसे कोई आकर जगाये और सम्बोधित करे कि यह तेरे सोने का स्थान नहीं है, तेरा स्थान तो शुद्ध सुवर्णमय धातु से निर्मित है, अन्य कुधातुओं के मिश्रण से रहित शुद्ध है
और अति सुदृढ़ है; इसलिये मैं तुझे तेरा स्थान बतलाता हूँ, वहाँ आ और शयन करके आनन्दित हो। इसी प्रकार ये प्राणी अनादि से रागादि को भला जानकर उन्हीं को अपना स्वभाव मानकर उसी में निश्चित होकर सो रहे हैं, स्थित हैं, उन्हें श्री गुरु करुणापूर्वक सम्बोधित करते हैं, जगाते हैं, सावधान करते हैं कि अंधे प्राणियो! तुम जिस पद में सो रहे हो, वह तुम्हारा पद नहीं है, तुम्हारी पद तो शुद्ध चैतन्य धातुमय है, बाह्य में अन्य द्रव्यों की मिलावट से रहित है तथा अन्तरंग में विकार रहित शुद्ध और स्थायी है; ऐसे शुद्ध निज चिद्काय रूप पद का अनुभव कर आनन्दित हों। ... आत्मा में अपदभूत द्रव्य भावों को छोड़कर निश्चित स्थिर एक इस प्रत्यक्ष अनुभवगोचर भाव जो कि आत्मा के स्वभावरूप से अनुभव किया जाता है, उसे हे भव्य! जैसा है, वैसा ग्रहण कर, वह तेरा पद है। ___ वास्तविक सत् अपना त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा, अपनी चिद्काय ही है, जो देह प्रमाण है। उसकी शरण लें। हमारे ध्यान का ध्येय हमारी चिद्काय ही है। जब तक निज चिद्काय ध्यान का ध्येय नहीं बनेगी, तब तक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने वाली नहीं है, संवर होने वाला नहीं है, धर्म का प्रारम्भ भी होने वाला नहीं है।