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चिद्काय की आराधना/25
की तरह बैठ जाओ और अपने उपयोग को अपनी ही आभ्यंतर दिव्यकाया में जोड़ने का अभ्यास करो। ___ जब उपयोग निज दिव्यदेह की ओर रहे, वह ही सुखद स्वसमय है। जब उपयोग पर में बसे, वह विपत्तिमय परसमय है। यही भेद विज्ञान है। स्वसमय ही मोक्ष है और परसमय ही संसार है।
वैराग्य मणिमाला, श्लोक 64, 70 में कहा है'अरे मूर्ख! तू अपने शरीर में विराजमान परमात्मा का अनुभव कर, अन्यथा इस संसार में खूब ही परिभ्रमण करेगा, मूखों में तू प्रसिद्ध गिना जायेगा और भविष्य में तू नपुंसक अर्थात् कर्त्तव्यहीन हो जायेगा।'
'तू अपने शरीर में विराजमान सिद्ध भगवान का अनुभव कर, अपने शरीर में विराजमान अपनी ही चैतन्य काया को देख। अपने शरीर में विराजमान परम विशुद्ध आत्मा का स्मरण कर और केवलज्ञान रूपी क्रीड़ा के द्वारा मोक्ष को प्राप्त कर।'
हम अपने को सर्वथा शुद्ध और अरूपी मानकर स्वच्छन्द वर्तन नहीं करें। जब तक द्रव्यकर्म और नोकर्म के साथ हमारा निमित्त-नैमेत्तिक सम्बंध है, तब तक हम निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय का भली भाँति अभ्यास करें। हम ऐसे कार्य नहीं करें जिनसे प्राप्त रूपी देह की क्षति होकर अपने चैतन्य प्राणों का घात हो। हम अपने बाह्य शरीर में ही स्थित अपने स्वसंवेदनगम्य शरीर में अपने उपयोग को बार-बार लगाकर पर्याय में अपने केवलज्ञानादि रूप शुद्ध चैतन्य प्राणों को अति शीघ्र प्रकट करें।
हमारी जो बहिर्मुख दृष्टि है उसे हटाकर अन्तर्मुख दृष्टि करने का, ध्यान करने का प्रतिदिन अभ्यास करें।
जब तक उपयोग बाहर जायेगा, परिणति अशुद्ध रहेगी। जितने शुभाशुभ भाव हैं, वे सब संसार के कारण हैं। इनसे कर्मों का आस्रव होता है। कर्मो का