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चिद्काय की आराधना/19
यह बात है निर्धान्त, वे सब आत्मदर्शन से हुए।। सागार या अनगार हो, पर आतमा में वास हो। जिनवर कहे अति शीघ्र ही, वह परमसुख को प्राप्त हो।। सारा जगत यह कहे, श्री जिनदेव देवल में रहे। पर विरला ज्ञानी जन, कहे कि देह-देवल में रहे।। देव देवल में नहीं रे, मूढ़! ना चित्राम में। वे देह-देवल में रहे, सम चित से शुद्ध जान ले।। श्रुत केवली ने यह कहा, ना देव मंदिर तीर्थ में। बस देह-देवल में रहे, जिनदेव निश्चय जानिये।। जिनदेव तन मंदिर में रहे. जन मंदिरों में खोजते। हंसी आती है कि मानो, सिद्ध भोजन खोजते।। जिस भांती बड़ में बीज है, उस भांती बड़ भी बीज में। बस इस तरह त्रेलोक्य जिन, आतम बसे इस देह में।। जब तक न जाने जीव, परम पवित्र केवल आत्मा। तब तक सभी व्रत, शील, संयम कार्यकारी हो नहीं।। जिनदेव ने ऐसा कहा, निज आत्मा को जान लो। यदि छोड़कर व्यवहार सब तो, शीघ्र ही भव पार हो।। परभाव को परित्याग कर, अपनत्व आत्मा में करे। जिनदेव ने ऐसा कहा, शिवपुर गमन वह नर करे।। आत्मा को जानकर, इच्छा रहित यदि तप करे। तो परम गति को प्राप्त हो, संसार में घूमें नहीं।। निज आत्मा को जाने नहीं, अर पुण्य ही करता रहे। तो सिद्ध सुख पावे नहीं, संसार में फिरता रहे।। निज आतमा को जानना ही, एक मुक्ति का मार्ग है। . कोई अन्य कारण है नहीं, हे योगीजन! पहिचान लो।। तुम करो चिन्तन स्मरण, अर ध्यान आतम देव का। बस एक क्षण में परम पद की, प्राप्ति हो इस कार्य से।।