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10/चिद्काय की आराधना
अरे प्रभु! तुम स्वभाव से ही परमेश्वर हो। तुम्हें अपने से विमुख होने में शर्म आनी चाहिए। अरे! कहाँ तेरी प्रभुता और कहाँ ये बहिर्मुखता के विकारी भाव - मिथ्यात्व - संसार - नरक - निगोद में अवतार।
अरे! भगवान तू कहाँ चला गया? भगवान तेरा विरोध नहीं है। प्रभु! तुझसे विमुख भाव का विरोध है। जिसकी माता अच्छे परिवार की पुत्री हो, जो पर पुरुष की ओर आँख उठाकर न देखे; उसका पुत्र वेश्या के यहाँ जाये! उसीप्रकार यह परिणति अपने स्वरूप को, अपने घर को, अपनी चिद्काय को छोड़कर पर घर में जाये तो शर्म आती है, वह कुशील है, व्यभिचारी है। हे प्रभु! हे भगवान! तेरे घर में क्या चीज की कमी है, जो तू बाहर परद्रव्यों में, परघर में, माथा मारता-फिरता है, अपने आनन्दमयी घर को छोडकर बाहर फिरता है, यह तो पागलपन है। __ वास्तव में हमें सब प्रकार से सुअवसर प्राप्त हुआ है। उसमें अपने को अपना कार्य कर लेने जैसा है। अपनी भूल को सुधार लेना है। दुनिया की आलोचना करने जायेगा तो यह अवसर गँवा देगा। हम वस्तु स्वरूप को समझ कर भूल को सुधार लें तो भगवान बनने में देर नहीं लगती है। इसका उपाय यही है कि हम अपने उपयोग को बाहर से समेट लें और अन्तर्दृष्टि करके अपनी
चैतन्य काया में, जीवास्तिकाय में जोड़ने का सदा अभ्यास करें। ... - बाहर के लिये तो हमें मर ही जाना चाहिए। पर में मेरा कोई अधिकार ही . नहीं है। अरे भाई! तू ऐसा महान पदार्थ है कि कर्मोदय के अभाव में राग के एक रजकणे को भी तू नहीं कर सकता है। उस पदार्थ की दृष्टि कर। बहिर्दृष्टि । छोड़कर अन्तर्दृष्टि कर एक अपनी दिव्यकाय में ही लीन हो जा, जिससे तुझे शांति प्रगट होगी। , “अरे जीव! तुझे कब तक संसार में भटकना है? संसार में अनन्त काल अनन्त दुःखों को भोगकर भी क्या तू थका नहीं है? अरे! अब तो अपनी ही चिद्काया में आकर आनन्द का आस्वादन कर। अरे भाई! तू अपनी ही चिद्काया को क्यों भूल गया है? जो भगवान का रूप है, वही तेरा रूप है। साढ़े तीन हाथ