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8/चिद्काय की आराधना संसारमार्ग है, संसार है। सब उपयोग का ही खेल है। इसलिये ध्यान मुद्रा में बैठकर उपयोग को अपनी ही चिद्काय में, आभ्यंतर शरीर में, पाँव से लेकर मस्तक तक लगाने का निरंतर अभ्यास करो। इससे ही कर्म कटेंगे और कर्म नाश कर परमात्म दशा प्रगट होगी।
भगवान ने कहा है कि बहिर्दृष्टि का फल संसार है और अंतर्दृष्टि, द्रव्यदृष्टि का फल मोक्ष है। तुम्हारे पास क्या चीज की कमी है? अपनी दिव्यकाय भी मौजूद है, उपयोग भी मौजूद है। जीब पर का तो कुछ कर सकता नहीं है,। तुझे क्या करना है? ऐसे अपने को समझाना। वास्तव में हमें अपने ही दिव्यकाय का गौरव, महिमा आनी चाहिए। ____अपने असंख्य प्रदेशों और गुणों की अपेक्षा तो मैं सदा परमात्मा हूँ। मगर पर्याय में परमात्मा प्रगट करना है, सो वह कैसे हो? उस का उपाय तो एक यह ही है कि भगवान की तरह ध्यान मुद्रा में बैठ जाओ। उसी प्रकार आँखें बन्द करके अपने उपयोग को अपनी ही चैतन्य काया में लगा दो। यह जो बाहर शरीर दिख रहा है, इसी में पाँव के अंगूठे से लेकर मस्तक तक अपनी आभ्यंतर काय है, जो इन्द्रियों से अगोचर है, किन्तु अतर्दृष्टि से स्वसंवेदनगोचर है, वही भगवान आत्मा है और वह मैं ही हूँ। मुझे आज तक अपनी ही महिमा नहीं आई। इसलिये दुःख उठा रहा हूँ। वह महिमा ध्यान के माध्यम से ही आयेगी। - हे भाई! तेरी भूल से ही तुझे कर्म बन्ध है। भूल यही है कि स्वयं ने स्वयं का,
अपनी दिव्यकाय का, स्वरूप का अनुभव, ध्यान नहीं किया। इसी से बंधन है। इसलिए ध्यान करने का उपदेश दिया जाता है। यदि अपनी भूल से कर्म बंधन नहीं हो तो मोक्ष के लिए शुद्धात्मा को ध्यावो, ऐसा उपदेश क्यों दिया जाता? भूलं है, कर्म बन्ध है और उससे छूटने का उपाय भी है। बंधन के समय ही द्रव्य की अपेक्षा, प्रदेशों की अपेक्षा पवित्रता का पिंड प्रभुस्वरूप आत्मा अन्दर विराज रहा है, जिसका लक्ष्य करने से भूल टलती है, बंधन टलता है और मोक्ष प्रगट होता है। ऐसे प्रभुस्वरूप आत्मा का अनुभव नहीं करने से ही पर्याय में कर्मबंध है।