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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/८३
महामोक्ष फल के दाता तुम त्रिभुवन नामी। सहज भाव फल भेंट करूँ हे अन्तर्यामी॥ अन्तराय की पाँच प्रकृतियों के क्षयकर्ता।
सिद्ध महान वीर्य गुणधारी संकटहर्ता । ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि./
पद अनर्घ्य पाने का उत्तम अवसर पाया। निज गुण अर्घ्य बना स्वामी चरणों में लाया॥ अन्तराय की पाँच प्रकृतियों के क्षयकर्ता।
सिद्ध महान वीर्य गुणधारी संकटहर्ता। ॐ ह्रीं अन्तरायकर्मीवरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि. ।
अर्ध्यावलि
(दोहा) अंतरांये की प्रकृतियाँ, पाँचों ही बलवान। । . . .शुक्ल-ध्यान की शक्ति से, हो जाती अवसान-। ।
___ पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्। प्रकृति प्रथम दानांतराय करने देती है कभी न दान । नाश प्रकृति दानांतराय को करूँ आत्मा का कल्याण ॥ अन्तराय की पाँचों प्रकृति विनायूँ करूँ आत्मकल्याण। निज अनन्तवीर्य गुण प्रगटा पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥१॥ ॐ ह्रीं दानान्तरायकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। - प्रकृति द्वितीय लाभांतराय तो लाभ नहीं होने देती। नाश प्रकृति लाभांतराय कर आत्मा सदा लाभ लेती॥ अन्तराय की पाँचों प्रकृति विनायूँ करूँ आत्मकल्याण। निज अनन्तवीर्य गुण प्रकटा पाऊँगा निज पद निर्वाण ॥२॥ ॐ ह्रीं लाभान्तरायकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्टिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।।
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