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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ७५
निज आनन्दनाथ परमात्मा की तू बात ध्यान से सुन । यदि आसन्न भव्य है तो तू बन ले अभी मोक्ष-भाजन ॥ अमृत स्वरूपी निज ज्ञायक की ही प्रतीति शिव - सुखदायी । परज्ञेयों की जो प्रतीति है वह सदैव भव - दुखदायी ॥ परज्ञेयों के जंगल में मत फँसना मेरे चेतन लाल । अपना ज्ञायक रूप निरखना जो है पावन परम विशाल ॥ दृष्टि अखण्ड बना ले अपनी मूल मार्ग पर चलता जा । श्री जिनवाणी हृदयंगम कर मोह - राग को दलता जा ॥ है अनादि से ही पर में एकत्व बुद्धि इस प्राणी की । अहंकार ममकारमयी है मिथ्यामति अज्ञानी की ॥ श्रद्धा गुण का पता नहीं है हृदय दुराग्रह से हैं पूर्ण । निज स्वरूप का ज्ञान नहीं है सदा कदाग्रह से आपूर्ण ॥ नामकर्म का त्वरित नाश कर शीघ्र आत्म-सुख पाना है।
अवगाहन गुण अभी प्रकट कर अगर न भव दुख पाना है । ॐ ह्रीं नामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति
स्वाहा ।
आशीर्वाद
(दोहा)
नामकर्म को क्षय करूँ, पाऊँ पद निर्वाण । अपने ही बल से करूँ, मुक्ति भवन निर्माण ॥
इत्याशीर्वादः ।
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