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________________ श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/७४ महार्घ्य __ (छंद - ताटंक) भव-अटवी के अँधियारे में तुम दीपक मेरे स्वामी। मुझे अधोगतियों से आप बचाते हो अन्तर्यामी॥ मन के अँधियारे को क्षयकर पूर्ण प्रकाश आप देते। खोटे कृत्यों के करने से सदा रोकते प्रभु नामी ॥ मेरी नैया भवसागर में डूब रही है त्रिभुवन पति । मुझे उबारो आप कृपा से बन जाऊँ मैं निष्कामी ॥ अजर अमर अविकल पद पाऊँ नाथ मुझे ऐसा वर दो। प्रभो आप को जपूँ निरन्तर बन जाऊँ मैं ध्रुवधामी । नामकर्म का नाश करूँ मैं नाथ मुझे अपना बल दो। मोक्षमार्ग पर चलूँ निरन्तर हो जाऊँ शिवपथ गामी॥ (दोहा) महा-अर्घ्य अर्पण करूँ, करूँ आत्म-कल्याण। नामकर्म का नाश कर, पाऊँ पद निर्वाण ॥ ॐ ह्रीं नामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो महायँ निर्वपामीति स्वाहा। जयमाला (वीरछन्द) रूप गंध रस स्पर्श सहित पुद्गल परमाणु विचित्र स्वरूप। इससे भिन्न आत्मा अपना एक मात्र चेतन चिद्रूप॥ पूर्णानन्द नाथ तू ही है ज्ञानानन्द स्वरूप महान । गुण अनन्त पति शक्ति अनन्तों सहित स्वयंभू निज भगवान ॥ सर्वज्ञों की बात मान ले उर अनन्त पुरुषार्थ जगा। मोह-राग-द्वेषादि विकारी भावों को अब त्वरित भगा।
SR No.007133
Book TitleSiddha Parmeshthi Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherKundkund Pravachan Prasaran Samsthan
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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