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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान / ६७
नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख - मूल । निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥५९ ॥ ॐ ह्रीं सुगंधनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. । नील वर्ण की प्रकृति विनायूँ पाऊँ उज्ज्वल ज्ञानप्रकाश । वर्ण प्रकृति है नामकर्म की पाँचों का मैं करूँ विनाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख - मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥ ६०॥ ॐ ह्रीं नीलवर्णनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.!
शुक्ल वर्ण की प्रकृति विनाशँ पाऊँ उज्ज्वल ज्ञानप्रकाश । वर्ण प्रकृति है नामकर्म की पाँचों का मैं करूँ विनाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख - मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥ ६१ ॥ ॐ ह्रीं शुक्लवर्णनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.। कृष्ण वर्ण की प्रकृति विनाशँ पाऊँ उज्ज्वल ज्ञानप्रकाश । "वर्ण प्रकृति है नामकर्म की पाँचों का मैं करूँ विनाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख - मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥६२॥ ॐ ह्रीं कृष्णवर्णनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.। रक्त वर्ण की प्रकृति विनाशँ पाऊँ उज्ज्वल ज्ञानप्रकाश । वर्ण प्रकृति है नामकर्म की पाँचों का मैं करूँ विनाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख - मूल ।
नि पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥ ६३ ॥ ॐ ह्रीं रक्तवर्णनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यषदप्राप्तये अर्घ्यं नि. ।
पीत वर्ण की प्रकृति विनायूँ पाऊँ उज्ज्वल ज्ञानप्रकाश । वर्ण प्रकृति है नामकर्म की पाँचों का मैं करूँ विनाश ॥