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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/६६
नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥५४॥ ॐ ह्रीं आम्लरसनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। . मधुर प्रकृति है नामकर्म की इसका भी अब करूँ विनाश।
अब रस नामकर्म की पाँचों प्रकृति नाथ सब कर दूं नाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥५५॥ ॐ ह्रीं मधुररसनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
तिक्त प्रकृति रस नामकर्म की इसका भी मैं करूँ विनाश। अब रस नाम कर्म की पाँचों प्रकृति नाथ सब कर दूँ नाश ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥५६॥ ॐ ह्रीं तिक्तरसनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
कटुक प्रकृति रस नामकर्म की इसका भी मैं करूँ विनाश। अब रस नामकर्म की पाँचों प्रकृति नाथ सब कर दूँ नाश॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥५७॥ ॐ ह्रीं कटुकरसनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि./
गन्ध प्रकृति दोनों ही नाथू पाऊँ निर्मल आत्मप्रकाश। इस दुर्गन्ध प्रकृति को नायूँ पाऊँ मैं निर्ग्रन्थ निवास ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल । निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥५॥ ॐ ह्रीं दुर्गंधनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.।
नाथ सुगन्ध प्रकृति को नायूँ पाऊँ निर्मल आत्मप्रकाश। गन्ध प्रकृति दोनों ही नायूँ पाऊँ मैं निर्ग्रन्थ निवास।