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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/६०
नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल। ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२६॥ ॐ ह्रीं आहारकसंघातनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्योअनर्घ्यपदप्राप्तयेअर्घ्य नि.।
अब तैजस संघात कर्म की प्रकृति प्रसिद्ध विनाश करूँ। अब संघात नामकर्म की पाँच प्रकृतियाँ नाश करूँ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२७॥ ॐ ह्रीं तैजससंघातनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
कार्माण संघात कर्म की प्रकृति प्रसिद्ध विनाश करूँ। अब संघात नामकर्म की पाँच प्रकृतियाँ नाश करूँ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२८॥ ॐ ह्रीं कार्माणसंघातनामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
प्रभु संस्थान नामकर्म के छह भेदों को नाश करूँ। समचतुरस्र संस्थान की प्रकृति तुरन्त विनाश करूँ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥२९॥ ॐ ह्रीं समचतुरस्रसंस्थाननामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान प्रकृति का अब प्रभु नाश करूँ। प्रभु संस्थान नामकर्म के छह भेदों को नाश करूँ॥ नामकर्म की सर्व प्रकृतियाँ हैं तिरानवे भवदुख-मूल ।
निज पुरुषार्थ शक्ति से सबको नाश करूँ मैं नाथ समूल ॥३०॥ ॐ ह्रीं न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थाननामकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।