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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/४३
मोहनीय की प्रत्याख्यानावरणी की यह क्रोध प्रकृति। ज्ञान भाव से नष्ट करूँगा सावधान है मेरी मति ॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२१॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणक्रोधकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय की प्रत्याख्यानावरणी की यह मान प्रकृति। परम विनय से नष्ट करूँगा सावधान है मेरी मति ॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२२॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमानकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय प्रत्याख्यानावरणी की माया प्रकृति विनाश। ऋजुतापूर्वक नष्ट करूँगा पाऊँगा उर विमल प्रकाश॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२३॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणमायाकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय की प्रत्याख्यानावरणी की यह लोभ प्रकृति। शौच भाव से नष्ट करूँगा सावधान है मेरी मति ॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२४॥ ॐ ह्रीं प्रत्याख्यानावरणलोभकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपद प्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय की प्रकृति संज्वलन क्रोध पूर्ण कर डालूँगा। है मुनि निर्ग्रन्थ स्वपद धारण कर क्षमा धर्म का करूँ प्रकाश॥