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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/४२
मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥१६॥ ॐ ह्रीं अनन्तानुबंधीलोभाकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय की अप्रत्याख्यानावरणी की क्रोध प्रकृति। इसे समूल नष्ट करने को जाग उठी है मेरी मति ॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥१७॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानवरणक्रोधकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपद - प्राप्तये अर्घ्य नि.। .मोहनीय की अप्रत्याख्यानावरणी की मान प्रकृति । इसे समूल नष्ट करने को जाग उठी है मेरी मति ॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥१८॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमानकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि./ . .
मोहनीय अप्रत्याख्यानावरणी माया प्रकृति विनाश । निजस्वरूप उज्ज्वल ऋजुतामय का प्रभु पाऊँ दिव्यप्रकाश॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी।
दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥१९॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणमायाकर्मविरहित श्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपद -प्राप्तये अर्घ्य नि.।
मोहनीय की अप्रत्याख्यानावरणी की लोभ प्रकृति । इसे समूल नष्ट करने को जाग उठी है मेरी मति ॥ मोहनीय का नाश करूँगा निज स्वभाव बल से स्वामी। .. दर्शनमोह चारित्र मोह जीतूंगा अब अन्तर्यामी ॥२०॥ ॐ ह्रीं अप्रत्याख्यानावरणलोभकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य नि.। .