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श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/२२
श्रुत ज्ञानावरणी बाधक श्रुतज्ञान में। श्रुत ज्ञानावरणी नायूँगा ध्यान में॥ ज्ञानावरणी पाँच प्रकृतियाँ क्षय करूँ।
ज्ञानावरणी कर्म आज मैं जय करूँ ॥२॥ ॐ ह्रीं श्रुतज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
अवधिज्ञान. आवरण जु बाधक ज्ञान में। अवधिज्ञान आवरण विनायूँ ध्यान में॥ ज्ञानावरणी पाँच प्रकृतियाँ क्षय करूँ।
ज्ञानावरणी कर्म आज मैं जय करूँ॥३॥ ॐ ह्रीं अवधिज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
मनपर्यय आवरण प्रकृति बाधक सदा। इसका क्षय कर पाऊँ ज्ञान महा सदा॥ ज्ञानावरणी पाँच प्रकृतियाँ क्षय करूँ।
ज्ञानावरणी कर्म आज मैं जय करूँ॥४॥ ॐ हीं मन:पर्ययज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
केवल ज्ञानावरण ज्ञान बाधक महा। इसे नाश , पाऊँ केवल रवि महा। ज्ञानावरणी पाँच प्रकृतियाँ क्षय करूँ।
ज्ञानावरणी कर्म आज मैं जय करूँ ॥५॥ ॐ ह्रीं केवलज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये | अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) पाँचों प्रकृति विनाश कर, पाऊँ केवलज्ञान। स्वपर प्रकाशक ज्ञान पा, पाऊँ स्वपद महान॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।