________________
श्री सिद्धपरमेष्ठी विधान/२१
अष्टकर्म विध्वंसक पावन धूप ध्यानमय लाऊँ। गुण अनंत प्रकटाने को पद नित्य निरंजन पाऊँ। ज्ञानावरणी कर्म विनाशक सिद्धप्रभु को वन्दन ।
पाँच प्रकृतियों के क्षयकर्ता ज्ञानसूर्य अभिनन्दन ॥ ॐ ह्रीं ज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
महामोक्ष फल पाने का ही निश्चय उर में लाऊँ। यह संसार अभाव करूँ मैं महामोक्ष फल पाऊँ। ज्ञानावरणी कर्म विनाशक सिद्धप्रभु को वन्दन ।
पाँच प्रकृतियों के क्षयकर्ता ज्ञान सूर्य अभिनन्दन ॥ ॐ ह्रीं ज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ अनर्घ्य स्वपद प्रकटाऊँ यही भाव उर लाऊँ। भव अटवी को ध्वंस करूँ मैं अर्घ्य अपूर्व बनाऊँ॥ ज्ञानावरणी कर्म विनाशक सिद्ध प्रभु को वन्दन ।
पाँच प्रकृतियों के क्षयकर्ता ज्ञानसूर्य अभिनन्दन ॥ ॐ ह्रीं ज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
अर्ध्यावलि
(छंद - चान्द्रायण) मति ज्ञानावरणी बाधक मतिज्ञान में। मति ज्ञानावरणी नाचूंगा ध्यान में। ज्ञानावरणी पाँच प्रकृतियाँ क्षय करूँ।
ज्ञानावरणी कर्म आज मैं जय करूँ ॥१॥ ॐ ह्रीं मतिज्ञानावरणीकर्मविरहितश्रीसिद्धपरमेष्ठिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य | निर्वपामीति स्वाहा।