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कविवर बनारसीदासजी की उपलब्ध पद्य रचनायें चार हैं। बनारसी विलास, नाम माला, अर्द्धकथानक और नाटक समयसार। इसके अतिरिक्त उनकी परमार्थवचनिका और उपादान निमित्त की चिट्ठी नामक दो अत्यन्त गम्भीर एवं मार्मिक गद्य रचनायें भी उपलब्ध हैं, जो छोटी होने के कारण स्वतंत्र रूप से मुद्रित न होकर मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थ के साथ ही मुद्रित की गई हैं।
वे अपने युग के महान् क्रान्तिकारी विचारक थे, मात्र भावुक कवि नहीं। रससिद्ध कवि होने के कारण उनका हृदय कम भावुक नहीं है, पर भावुकता में विचार पक्ष कमजोर नहीं पड़ने पाया है।
जैन अध्यात्म के क्षेत्र में तो पण्डित बनारसीदासजी को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है ही, हिन्दी साहित्य के इतिहास में भी उनका योगदान संदिग्ध नहीं। आवश्यकता मात्र साहित्यिक उपादानों की दृष्टि से उनके साहित्य का गम्भीर अध्ययन प्रस्तुत करने की है।
कविवर का देहोत्सर्ग काल तो अविदित ही है,किन्तु तत्सम्बन्ध में एक किंवदन्ति प्रसिद्ध है कि अन्तकाल में उनका कण्ठ अवरुद्ध गया था, अतः वे बोल नहीं सकते थे; पर वे ध्यानमग्न और चिन्तनरत अवश्य थे। उस समय समीपस्थ लोगों में इस प्रकार चर्चा होने लगी कि कवि के प्राण माया व कुटुम्बियों में अटके हैं, उनकी आशंका के निवारणार्थ उन्होंने अपने जीवन का अन्तिम छन्द निम्न प्रकार से लिखा :
ज्ञान कुतक्का हाथ, मारि अरि मोहना, प्रगट्यौ रूप स्वरूप, अनन्त सु सोहना। जा परजै को अन्त, सत्यकरि मानना,
चलै बनारसीदास, फेर नहिं आवना॥ - इसी प्रकार हम भी अपने जीवन में ज्ञान और वैराग्य की ज्योति जलाकर अपने जीवन-रथ को आलोकित करें – यही भावना है।