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परमार्थवचनिका प्रवचन
का ग्रहण और परभाव का त्याग-ऐसे ग्रहण-त्याग की क्रिया से वह मोक्ष का साधन कर रहा है, इसीलिए उसे साधक कहा है।
परद्रव्य मुझे अशुद्धता कराते हैं - ऐसा जो मानते हैं, वे परद्रव्य को हेय मानकर द्वेष करते हैं, किन्तु अपनी अशुद्धता को छोड़ने का उपाय नहीं करते। पर के आश्रय से मुझे शुद्धता होती है - ऐसा जो मानते हैं, वे परद्रव्य को उपादेय मानकर उसके राग में रुक जाते हैं; किन्तु स्वद्रव्य का आश्रय करके शुद्धता को नहीं साधते।
इसप्रकार निमित्ताधीन दृष्टि में अटके हुए जीव, स्वभाव का ग्रहण तथा परभाव का त्याग नहीं कर सकते अर्थात् मोक्ष को नहीं साध सकते।
अहो! एक बार यह समझ ले तो वीतरागता प्रकट हो जाय, परिणति स्वाश्रय की तरफ झुककर मोक्षोन्मुख चलने लगे – यह धर्मी की बात है।
पण्डित बनारसीदासजी ने उपादान-निमित्त के दोहे भी रचे हैं। दोहे तो केवल सात ही हैं, किन्तु उसमें स्पष्टता विशेष है। उसमें वे कहते हैं -
“सधै वस्तु असहाय जहाँ, तहाँ निमित्त है कौन?" .
जहाँ समस्त वस्तुएँ असहायपने अन्य की सहायता बिना ही सधती हैं, वहाँ निमित्त उनमें क्या करेगा? कुछ भी नहीं। निमित्त कुछ सहायता कर सकता है - ऐसा बनता ही नहीं। जैसे बाह्य निमित्त सहकारी नहीं, वैसे ही मोक्षमार्ग में शुभरागरूप निमित्त भी सहकारी नहीं, वह भी मोक्षमार्ग में बिलकुल अकिंचित्कर है - यह बात विशेषरूप से समझना आवश्यक है।
प्रश्न - जीव की शुद्धता-अशुद्धता में परद्रव्य निमित्त है कि नहीं? उत्तर - है। प्रश्न - क्या वह निमित्त हेय है? उत्तर - नहीं। प्रश्न - तो क्या निमित्त उपादेय है?
उत्तर - नहीं; अरे! निमित्त हेय भी नहीं, उपादेय भी नहीं; निमित्त तो ज्ञेय हैं।