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हेय-ज्ञेय-उपादेयरूप ज्ञाता की चाल ___ साधक के ज्ञान में कुछ परावलम्बन भी है, परन्तु उससे उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान नहीं हो जाता; फिर भी ज्ञानी उस परावलम्बन को मोक्षमार्ग नहीं मानता; शुद्धात्मानुभूतिरूप ज्ञान ही मोक्षमार्ग का साधक है – ऐसा ज्ञानी मानता है। बारह अंग में भी शुद्धात्मानुभूति ही करने का उपदेश है
और उसी को जिनशासन कहा गया है। जिसने शुद्धात्मा की अनुभूति की, उसने बारह अंग का सार प्राप्त कर लिया; पश्चात् अमुक शास्त्रों का पठन करना ही पड़े - ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। बारह अंग का ज्ञान हो तो हो, और न हो तो भी स्वसत्ता के अवलम्बनरूप स्वानुभूति से ज्ञाता मोक्षमार्ग को साधता है। ___ उदयभाव हो, परन्तु उसका अवलम्बन ज्ञानी को नहीं है। उदयभाव अवस्था के प्रमाण में है अवश्य; किन्तु उसके अवलम्बन से ज्ञान नहीं है, ज्ञान तो स्वानुभवप्रमाण है। परसत्तावलम्बनशील ज्ञान - वह परमार्थ नहीं, मोक्षमार्ग नहीं; स्वानुभूतिरूप स्वसत्तावलम्बनशील ज्ञान ही परमार्थ है और वही मोक्षमार्ग है। ___ अहो! स्वानुभूति की ही महिमा है, यही सच्ची विद्या है: इसके अतिरिक्त बाहर की विद्या अथवा शास्त्रपठन की विद्या मोक्ष की साधक नहीं, स्वसन्मुख झुकनेवाली विद्या ही मोक्ष की साधक है। अरे! ज्ञानी का भी परावलम्बी ज्ञान मोक्ष का साधन नहीं तो अज्ञानी के परावलम्बी ज्ञान की क्या बात करें? भाई! पराश्रयभाव के पहाड़ भी मोक्षमार्ग का उद्भव करने में समर्थ नहीं और स्वालम्बन की कणिका में से ही मोक्षमार्ग का उदय होता है।
इसप्रकार ज्ञानी स्वसत्तावलम्बनशीली ज्ञान को ही मोक्षमार्ग समझता है, उदय से अथवा बाहर के जानपने के अवलम्बन से वह मोक्षमार्ग नहीं मानता। अरे, उदयभाव से या बाहर के जानपने के आधार से गुणस्थान का माप नहीं निकलता; किन्तु अन्दर की शुद्धता के आधार से या स्वसत्ता का अवलम्बन कैसा है - उसके आधार से गुणस्थान का माप निकलता