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परमार्थवचनिका प्रवचन
तीनि विवाह भारया, सुता दोइ सुत सात ॥ ६४२ ॥ नौ बालक हुए मुए, रहे नारि - नर दोइ । ज्यों तरुवर पतझर है, रहैं ठूंठ से होइ ॥ ६४३ ॥ काव्य-प्रतिभा तो आपको जन्म से ही प्राप्त थी । १४ वर्ष की उम्र में आप उच्चकोटि की कविता करने लगे थे, पर प्रारम्भिक जीवन में शृंगारिक कविताओं में मग्न रहे। इनकी सर्वप्रथम कृति 'नवरस' १४ वर्ष की उम्र में तैयार हो गई थी, जिसमें अधिकांश शृंगार रस का ही वर्णन था - इस रस की यह एक उत्कृष्ट कृति थी, जिसे विवेक जागृत होने पर कवि ने गोमती नदी में बहा दिया था।
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वि. सं. १६८० में ३७ वर्ष की अवस्था में उनके धार्मिक जीवन में नई क्रान्ति हुई। उन्हें अरथमलजी ढोर का संयोग मिला और उन्होंने आपको पाण्डे राजमलजी द्वारा लिखित समयसार के कलशों की बालबोधिनी टीका पढ़ने की प्रेरणा ही नहीं दी, बल्कि ग्रन्थ भी सामने रख दिया । बनारसीदासजी उसको पढ़कर बहुत प्रभावित हुए; किन्तु उसका मर्म तो जान नहीं पाये और स्वच्छन्द हो गये।
कवि की यह दशा बारह वर्ष तक रही। इसी बीच कवि ने बहुत-सी कवितायें लिखीं, जो बनारसी - विलास में संगृहीत हैं। कवि ने उनकी प्रामाणिकता के बारे में लिखा है कि यद्यपि उससमय मेरी दशा निश्चयाभासी स्वच्छन्दीएकान्ती जैसी हो गई थी; तथापि जो कुछ उससमय लिखा गया, वह स्याद्वादवाणी के अनुसार ही था । आप स्वयं भी लिखते हैं :
सोलह सै बानवै लौं, कियौ नियत रसपान ।
पै कवीसुरी सब भई, स्याद्वाद परवान ।। ६२८ ॥ इसके बाद अनायास ही आगरा में पण्डित रूपचन्दजी पाण्डे का आगमन हुआ और उनकी विद्वता से प्रभावित होकर पण्डित बनारसीदासजी अपने सभी अध्यात्मी साथियों सहित उनका प्रवचन सुनने गये, जिसमें उन्होंने गोम्मटसार ग्रन्थ का वाचन करते हुए गुणस्थान अनुसार सम्यक् - आचरण का विवेचन