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________________ ज्ञानी और अज्ञानी अभिप्रायरूप भयंकर काला नाग अज्ञानी के घर में बैठ गया है और उसे उसका भान नहीं है, उलटा उसको हितकारी मान रखा है। सन्तज्ञानी उससे कहते हैं कि अरे मूढ़! ऐसे विषधर सर्प जैसे अहितकारी मिथ्याभाव का तू सेवन कर रहा है! यह भाव छोड़!! – ऐसे मिथ्याभाव का सेवन तो मूढ़ता है। अब विचार करो कि यहाँ मूढ़ कहने में सामनेवाले के ऊपर द्वेष है या करुणा? अत्यन्त अहितकारी मिथ्याभाव के सेवन से उसे बचाने के लिए करुणापूर्वक यह उपदेश है। सर्वज्ञ के अतीन्द्रिय सुख को अनेक प्रकार से समझाने पर भी जो उसे नहीं मानते, ऐसे जीवों को उनकी गम्भीर भूल की विकरालता समझाने के लिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य जैसे वीतरागी सन्त प्रवचनसार में कहते हैं कि - णो सद्दहति सोक्खं सुहेसु परमं ति विगदघादीणं। सुणिदूण ते अभव्वा भव्वा वा तं पडिच्छंति॥१२॥ अर्थात् जिनके घातिकर्म नष्ट हो गये हैं, उनका सुख सर्व सुखों में परम अर्थात् उत्कृष्ट है - ऐसे सर्वज्ञशक्ति के वचनों को सुनकर भी जो श्रद्धा नहीं करते, वे अभव्य हैं और जो श्रद्धा करते हैं.- स्वीकार करते हैं, वे भव्य हैं। यहाँ किसी व्यक्तिविशेष की बात नहीं है, यह तो सत्य की पुकार है। सर्वज्ञ का अतीन्द्रिय सुख बतलाकर आत्मा के सुखस्वभाव की ऐसी सरस बात हम सुनाते हैं, यह सुनकर जिसे अन्तरंग उमंग से उत्साह न आवे, वह जीव धर्म प्राप्त करने के लिए अपात्र है। मुमुक्षु को तो अतीन्द्रिय सुख की बात कर्णगोचर होते ही उसकी आत्मा के असंख्य प्रदेश सुखोत्कंठा से झनझनाने लगते हैं। अहा! सन्तों ने समझाने में कोई कसर नहीं रखी। सच्ची जिज्ञासा से पात्र होकर समझना चाहे तो मार्ग एकदम स्पष्ट, सीधा और सरल है। जिसे समझना न हो, झगड़ा ही करना हो, उससे क्या कहें? उसका आत्मा इसीप्रकार परिणमन कर रहा है, उसमें दूसरा कोई
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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