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________________ ज्ञानी और अज्ञानी उत्तर - अरे भाई ! निर्मलपर्याय को छोड़ देने के लिए नहीं कहा, परन्तु उस पर्याय का भेद करके आश्रय करने जाओगे तो विकल्प उत्पन्न होगा; अतः उस विकल्प को छुड़ाने के लिए पर्याय भेद का आश्रय छुड़ाया है। पर्याय भेद का आश्रय छुड़ाने के लिए और अभेद स्वभाव का आश्रय कराने के लिए पर्यायभेद को अभूतार्थ कहा है। जब भेद का आश्रय छोड़कर अन्तर्मुख अभेदस्वभाव का आश्रय करेगा, तब पर्याय अन्तरस्वभाव में अभेदपने लीन होगी और निर्विकल्प अनुभव होगा । ऐसी स्थिति में पर्याय कहीं छूट नहीं जावेगी । हाँ, पर्याय का आश्रय अवश्य छूट जावेगा, पर्यायभेद का विकल्प छूट जावेगा। पर्याय को अभूतार्थ कहने पर कोई निर्मलपर्याय को ही सर्वथा छोड़ देना प्रयोजनभूत समझ ले तो यह उचित नहीं है। समयसार में भी 'आत्मा अप्रमत्त या प्रमत्त नहीं' – ऐसा कहकर पर्याय के भेद का आश्रय छुड़ाकर एकरूप ज्ञायकस्वभाव का अनुभव कराया है; उस स्वभाव के अनुभव में पर्याय निर्मल होती जाती है, उसका कहीं निषेध नहीं है 57 सत् के सभी पक्षों को ज्यों का त्यों समझना चाहिए। देखो! यह मूल प्रयोजन की सरस बात है । मोक्षमार्ग कैसे साधा जाय, उसकी बात है। मोक्षमार्ग की प्ररूपणा में आजकल अनेक विवाद चल रहे हैं। कोई कहता है कि शुभोपयोग ही मोक्षमार्ग है, और कोई कहता है कि छठवें गुणस्थान तक शुद्धभाव अथवा निश्चय सम्यक्त्वादि होते ही नहीं। अरे भाई! शुभभाव तो पुण्यबन्ध का कारण है, वह मोक्ष का कारण कैसे होगा? और निश्चय - सम्यक्त्व सहित शुद्धभाव तो चतुर्थ गुणस्थान से प्रारम्भ हो जाता है, उसके बिना मोक्षमार्ग अथवा धर्म होगा ही कहाँ से ? किन्तु बहिरात्मा जीव अन्तर के शुद्ध परिणाम को पहचान सकता नहीं, वह तो मात्र बाह्य की स्थूल क्रिया तथा स्थूल राग को ही देखनेवाला है; राग से पार चैतन्यस्वभाव
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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