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परमार्थवचनिका प्रवचन
इन दोनों के अनन्त प्रकारों का पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञानी को है। जीवों के शुद्ध-अशुद्ध परिणामों में अनन्त सूक्ष्मप्रकार हैं; उनका परिपूर्णस्वरूप तो सर्वज्ञ ही जानते हैं और सर्वज्ञ अनुसार सामान्यपने इन दोनों पद्धतियों का ज्ञान मति-श्रुतज्ञानी को भी आंशिक होता है। अनन्त प्रकारों को छद्मस्थ पूरा नहीं जान सकता; परन्तु कौनसा भाव स्वभावाश्रित है? कौन-सा भाव पराश्रित है? कौनसा भाव मोक्षमार्ग का कारण और कौन-सा भाव बन्ध का कारण है? किस भाव से धर्म है और किससे धर्म नहीं? – ऐसा प्रयोजनरूप ज्ञान सम्यग्दृष्टि को मति-श्रुतज्ञान से भी होता है। वह ज्ञान भले ही थोड़ा हो, किन्तु है तो वह केवलज्ञानानुसार ही।
'यह वचनिका के वलीवचन अनुसार है' - ऐसा पण्डित बनारसीदासजी स्वयं ही इस वचनिका के अन्त में कहेंगे।
अनन्त प्रकार के शुद्ध-अशुद्ध भावों में से अपने हिताहित का पृथक्करण कर ले – ऐसी शक्ति-मति-श्रुतज्ञान में है और अवधिज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान से भी इन भावों का एकदेश प्रत्यक्षज्ञान होता है। इसप्रकार आगम व अध्यात्म दोनों पद्धतियों के अनन्त प्रकारों को केवलज्ञानी सम्पूर्णरूप से जानते हैं, मति-श्रुतज्ञानी उसके अंश को जानते हैं और अवधि-मनःपर्ययज्ञानी उसके एक भाग को जानते हैं। ___यह सभी ज्ञान यथावस्थित जाननेवाले हैं; इन यथावस्थित ज्ञानों में भी न्यूनाधिकता जानना। केवलज्ञान तो सभी का समान कक्षा का ही होता है, उसमें तो न्यूनाधिकता नहीं होती; परन्तु मति-श्रुतज्ञान में अथवा अवधि-मनःपर्ययज्ञान में हीनाधिकता के अनेक प्रकार पड़ते हैं। इन ज्ञानों से अपनी हीन-अधिक शक्ति के प्रमाण में आगम-अध्यात्म के प्रकारों को सम्यग्दृष्टि-ज्ञाता जानता है और इन ज्ञानों के बल से वह शुद्धअध्यात्मपद्धति को साधता है।
शुद्धचेतनारूप अध्यात्मपद्धति मोक्षमार्गरूप है, वह अपूर्व है; पूर्व में