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परमार्थवचनिका प्रवचन
उत्तर- विकार के अनन्तप्रकार हैं और उनके निमित्तरूप कर्म में अनन्तानन्त परमाणु हैं – इसप्रकार आगमपद्धति में अनन्तता है और जीव के अनन्तगुणों की अनन्त निर्मलपर्यायें हैं, प्रत्येक निर्मल पर्याय अनन्त गंभीर भावों से और अनन्त सामर्थ्य से भरी हुई है; ज्ञान की एक छोटी-सी पर्याय में भी अनन्त अविभाग प्रतिच्छेद रूप अंशों की सामर्थ्य है। इसप्रकार अध्यात्मपद्धति में भी अनन्तता जानना। एक-एक आत्मा में अनन्तगुण हैं, प्रत्येक गुण में अनन्त निर्मलपर्यायें प्रगट होने की शक्ति पड़ी है तथा प्रत्येक निर्मलपर्याय अनन्त सामर्थ्य सहित है। तेरी एक आत्मा में कितनी अनन्तशक्ति है, उसका लक्ष्य करे तो स्व-सन्मुखवृत्ति हो और अपूर्व अध्यात्मदशा प्रगट हो। ____ एक तरफ तो विकारधारा अनादि से है और दूसरी तरफ स्वभाव सामर्थ्य की धारा भी अनादि से साथ ही साथ चली आ रही है, विकारधारा के समय भी स्वभावसामर्थ्य की धारा का विच्छेद नहीं हो गया है, अभाव नहीं हो गया है; परिणति जब स्वभाव सामर्थ्य की ओर झुकी, तब ही विकार की परम्परा का प्रवाह टूटा और अध्यात्म की परम्परा प्रारम्भ हुई; जो पूर्ण होकर सादि-अनन्तकाल तक रहेगी।
अतः हे भाई! अन्तर्मुख होकर अपने स्वभाव सामर्थ्य का विचार कर, लक्ष्य कर, प्रतीति कर और अनुभव कर। लोगों को यह तो विश्वास आता है कि एक बीज से इतना विशाल किलोमीटरों में फैल जानेवाला बड़वृक्ष हो गया, परन्तु चैतन्यशक्ति के एक बीज में अनन्त केवलज्ञानरूप | बड़वृक्षों को फैलाने की अनन्त शक्ति है – ऐसा विश्वास नहीं आता।
यदि चैतन्य सामर्थ्य का विश्वास करे तो उसके आश्रय से रत्नत्रयधर्म की अनेक शाखा-उपशाखा प्रगट होकर मोक्षफल सहित विशाल वृक्ष उगे। भविष्य में होनेवाले मोक्षवृक्ष की शक्ति वर्तमान में ही तेरे चैतन्यबीज में विद्यमान पड़ी है। सूक्ष्मदृष्टि से उसको विचार लेने पर अनुभव होकर तेरा अपूर्व कल्याण होगा।