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________________ संसारावस्था के तीन व्यवहार निश्चय तो द्रव्य का स्वरूप, व्यवहार – संसारावस्थित भाव, उसका अब विवरण कहते हैं : मिथ्यादृष्टि जीव अपना स्वरूप नहीं जानता, इसलिए परस्वरूप में मग्न होकर उसको अपना कार्य मानता है; वह कार्य करता हुआ अशुद्धव्यवहारी कहा जाता है। सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूप को परोक्षप्रमाण द्वारा अनुभवता है, परसत्ता-परस्वरूप से अपना कार्य न मानता हुआ योगद्वार से अपने स्वरूप के ध्यान-विचाररूप क्रिया करता है; वह कार्य करते हुए मिश्रव्यवहारी कहा जाता है। केवलज्ञानी यथाख्यातचारित्र के बल से शुद्धात्मस्वरूप का रमणशील है, इसलिए शुद्धव्यवहारी कहा जाता है। योगारूढ़ अवस्था विद्यमान है, अतः व्यवहारी नाम कहते हैं। शुद्धव्यवहार की सरहद तेरहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त जानना। - ‘असिद्धपरिणमनत्वात् व्यवहारः।' निगोद से लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त सभी संसारी जीवों की अवस्था के प्रकार इन तीनों विभागों में समा जाते हैं। संसार के जीवों में बहुभाग तो मिथ्यादृष्टि जीवों का ही है। मिथ्यादृष्टि जीव निजात्मस्वरूप जानता नहीं है और शरीरादि की क्रिया, वह मैं हूँ, राग जितना ही मैं हूँ' – इसप्रकार मानकर पर स्वरूप में ही मग्न रहता है - अर्थात् अशुद्धपर्यायरूप से ही परिणमता है, इसलिये वह अशुद्धव्यवहारी
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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