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________________ जीवद्रव्य की अनन्त अवस्थाएँ का अवलम्बन करता है, वह शुद्धता प्राप्त करके सिद्ध हो जाता है, उसके व्यवहार नहीं रहता और वह व्यवहारातीत हो जाता है। 23 अज्ञानी व्यवहार....व्यवहार करता है; किन्तु भाई! तेरा तो जो व्यवहार है, वह भी अशुद्ध है, फिर भला तुझे उस अशुद्धता में से शुद्धता कैसे प्राप्त होगी? जिन्हें शुद्धव्यवहार है वे तो व्यवहार के अवलम्बन में अटकते ही नहीं, उनकी परिणति तो शुद्धस्वभाव की ओर ही झुकी हुई है। शुद्धस्वभाव की ओर झुकी हुई परिणति को ही यहाँ शुद्धव्यवहार कहा है - ऐसा शुद्धव्यवहार अज्ञानी के नहीं होता । अब तीनों अवस्थाओं का विवरण लिखते हैं : जितने काल मिथ्यात्व अवस्था, उतने काल अशुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य अशुद्धव्यवहारी। सम्यग्दृष्टि होते ही चतुर्थ गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान पर्यन्त मिश्रनिश्चयात्मकद्रव्य मिश्रव्यवहारी । केवलज्ञानी शुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य शुद्धव्यवहारी । यहाँ जो तीन प्रकार के भेद किए, वे किस-किस जीव को होते हैं, यह बतलाते हैं - अज्ञानी जीव आत्मा के शुद्धस्वभाव को भूलकर, रागादिअशुद्धतारूप ही अपने को मानता हुआ, अशुद्धतारूप ही परिणमन करता है, अतः उसके द्रव्य को अशुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य कहा है । यद्यपि अशुद्धता तो क्षणिक पर्याय है; तथापि उसके सहकार से द्रव्य को अशुद्ध कहा जाता है। जब वही जीव शुद्धपरिणतिरूप परिणमन करता है, तब शुद्धपरिणति के सहकार से उसी द्रव्य को शुद्धनिश्चयात्मकद्रव्य कहा जाता है। - अशुद्धपर्याय के समय भी शुद्धद्रव्यस्वभाव तो विद्यमान ही है; किन्तु अज्ञानी को इसका भान नहीं है । यदि उसे स्वभाव का भान हो जाय तो उसको अकेला अशुद्धपरिणमन नहीं रहे, बल्कि वह साधक हो जाय।
SR No.007132
Book TitleParmarth Vachanika Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Rakesh Jain, Gambhirchand Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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