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संसारावस्था जीव की अवस्था
अवश्य होगी। इस समस्त व्याख्या से यह बात सूचित होती है कि प्रत्येक द्रव्य के परिणमन की अत्यन्त स्वतंत्रता है। ___ यहाँ परमार्थवचनिका में संसारावस्था में स्थित जीवों के परिणमन की विचित्रता की व्याख्या चल रही है। भगवान सर्वज्ञदेव के द्वारा जाना हुआ यह अलौकिक विज्ञान है। तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान में केवलज्ञान की सामर्थ्य सभी जीवों की समान है; परन्तु औदयिकभावों में भिन्नता है। किन्हीं भी संसारी जीवों के परिणाम सर्वप्रकार से सदृश्यता को धारण नहीं करते – ऐसा ही वस्तु का अहेतुक स्वभाव है। यद्यपि द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा शुद्धनय से सभी जीव समान हैं। सभी जीव अनादिकाल से वर्तमान तक परिणमन करते आये हैं; तथापि कोई सिद्ध - कोई संसारी, कोई सर्वज्ञ – कोई अल्पज्ञ, कोई वीतरागी – कोई रागी, कोई ज्ञानी - कोई अज्ञानी; अरे! छठवें-सातवें गुणस्थानवर्ती मुनिराजों के परिणामों में भी विचित्रता है; छठवें गुणस्थान में ही किसी को चार, किसी को तीन
और किसी को दो ही ज्ञान होते हैं; विचित्रता तो यहाँ तक है कि दो ज्ञानवाला भी कदाचित् चार ज्ञानवाले से पहले ही केवलज्ञान प्राप्त कर ले। कोई जीव केवलज्ञान होने के बाद किंचित् न्यून कोटिपूर्व तक अर्हन्तपद में ही विचरण करे एवं कोई जीव बहुत समय बाद अर्हन्तपद प्राप्त करे और अन्तर्मुहूर्त में ही सिद्धदशा प्राप्त कर लेवे। संसारी जीवों के परिणामों में इसीप्रकार अनेकानेक विचित्रतायें हैं।
विभावरूप परिणमन की योग्यता भी प्रत्येक द्रव्य की भिन्नभिन्न होती है। यह बात जीव तथा पुद्गल - दोनों में लागू पड़ती है। देखो! स्वभाव की अपेक्षा तो अनन्तजीव समान हैं; किन्तु विभाव की अपेक्षा नहीं। इसीप्रकार परमाणु भी जब विभावरूप अर्थात् स्कंधरूप परिणमित होता है, तब भी प्रत्येक परमाणु की भिन्न-भिन्न . योग्यता होती है।