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गाथा ९७ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव है, उसे जो छोड़ता नहीं है तथा जो सभी पदार्थों को देखता-जानता है, वह स्वसंवेद्य पदार्थ, वह स्वानुभूतिगम्य पदार्थ मैं हूँ। - ज्ञानी ऐसा चिन्तवन करते हैं।
इसी को धर्मध्यान कहते हैं, प्रत्याख्यान कहते हैं। साधर्मी भाईबहिनों को करने योग्य एकमात्र कार्य यही है ।।४९।। ___ इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव चार छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसमें पहला छन्द इसप्रकार है -
(वसंततिलका ) आत्मानमात्मनि निजात्मगुणाढ्यमात्मा
जानाति पश्यति च पंचमभावमेकम् । तत्याज नैव सहजं परभावमन्यं गृह्णाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम् ।।१२९॥
(हरिगीत ) आतमा में आतमा को जानता है देखता। बस एक पंचमभाव है जो नंतगुणमय आतमा ।। उस आतमा ने आजतक छोड़ा न पंचमभाव को।
और जो न ग्रहण करता पुद्गलिक परभाव को॥१२९|| यह आत्मा, आत्मा में अपने आत्मा संबंधी गुणों से समृद्ध आत्मा को अर्थात् एक पंचमभाव को जानता-देखता है; क्योंकि इसने उस सहज पंचमभाव को कभी छोड़ा ही नहीं है और यह पौद्गलिक विकार रूप परभावों को कभी ग्रहण भी नहीं करता। .
स्वामीजी इस छन्द के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"चैतन्यमूर्ति पंचमभावस्वरूप आत्मा को आत्मा जानता है। पंचमभाव को जाननेवाली तो पर्याय है, परन्तु वह पर्याय आत्मा में अभेद है। द्रव्य-पर्याय का भेद नहीं, इसलिए ‘आत्मा आत्मा को जानता है' - ऐसा कहा है । वास्तव में जानने का कार्य तो पर्याय ही करती है, ध्रुवतत्त्व जानने का कार्य नहीं करता । वहाँ उस पर्याय का लक्ष ध्रुवतत्त्व के ऊपर है; तथापि वह पर्याय स्वयं अन्धी रहकर द्रव्य