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गाथा ९६ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
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त्रिकाली भगवान आत्मा निश्चय है और उस स्वभाव के आश्रय से जो केवलज्ञानादि प्रगट हुये, वे शुद्धसद्भूतव्यवहार हैं; मैं उनका ही आधार हूँ; अपूर्णता का, विकार का मैं आधार नहीं हूँ ।
जैसे परमाणु अपनी वर्ण, गंध, रस, स्पर्श की शुद्धपर्याय का आधार है; वैसे ही मेरा आत्मा भी शुद्ध केवलज्ञानादि चतुष्टय का आधार है। जैसे केवली परमात्मा हैं, वैसा ही मैं हूँ - ऐसे अपने स्वभाव की भावना करना अर्थात् अल्पज्ञता अथवा विकार का लक्ष छोड़कर पूर्णस्वभाव का ही आश्रय करके उसमें एकाग्र होना । अल्पज्ञता के समय भी पूर्णता के आधाररूप अपने स्वभाव को ही देख, उसी के आधार से पूर्ण पर्याय विकसित होगी ।
प्रत्याख्यान तो वीतरागता है और वह स्वभाव के आश्रय से होती है, इसलिए पूर्ण स्वभाव का आश्रय करनेवाले को ही सच्चा प्रत्याख्यान होता है । व्यवहारनय से मैं शुद्धपर्यायों से युक्त परमात्मा हूँ - ऐसी भावना करना और निश्चय से मैं सहजज्ञानस्वरूप हूँ, सहजदर्शनस्वरूप हूँ, सहजचारित्रस्वरूप हूँ, और सहजचित्शक्तिस्वरूप हूँ - ऐसी भावना करना। इसमें पर्याय की बात नहीं है, किन्तु त्रिकाली स्वरूप की बात है, इसमें सहजज्ञान - दर्शन आदि भेदों का भी विकल्प नहीं है । चार भेदों के ऊपर दृष्टि जाये तब तो विकल्प उठता है ।
अभेदरूप सहजस्वरूप निश्चय है और उसकी भावना करने पर जो केवलज्ञानादि पर्यायें प्रगट हो जाती हैं, वह शुद्धव्यवहार है।
धर्म की विशेषता बाहर में नहीं होती; धर्म तो आत्मा में होता है, बाहर में नहीं । ज्ञान को अन्तर्मुख करके एकाग्र करना ही धर्मी की विशेषता है । धर्मी तो स्वभाव का आश्रय लिए हुए पड़ा है, इसलिए उसके स्वभाव की खान में से निर्मल-निर्मल पर्यायें प्रगट होती जाती हैं। अपने स्वभाव की भावना करके उसमें एकाग्र होना प्रत्याख्यान की क्रिया है । "
इस गाथा में यह कहा गया है कि ज्ञानी ऐसा सोचते हैं कि मैं १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७६९-७७०