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निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार (गाथा ९५ से गाथा १०६ तक)
नियमसार गाथा ९५ नियमसार अनुशीलन भाग-२ में अबतक परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार की चर्चा १८ गाथाओं में समाप्त हुई। अब निश्चयप्रत्याख्यान अधिकार आरंभ होता है। · नियमसार की ९५वीं गाथा और निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार की पहली इस गाथा में निश्चयप्रत्याख्यान के स्वरूप को समझाते हैं।
गाथा मूलतः इसप्रकार है - मोत्तूण सयलजप्पमणागयसुहमसुहवारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स ।।१५।।
(हरिगीत ) सब तरह के जल्प तज भावी शुभाशुभ भाव को।
जो निवारण कर आत्म ध्यावे उसे प्रत्याख्यान है।।९५|| सम्पूर्ण जल्प अर्थात् सम्पूर्ण वचन विस्तार को छोड़कर और भावी शुभ-अशुभ भावों का निवारण करके जो मुनिराज आत्मा को ध्याते हैं, तब उन मुनिराजों को प्रत्याख्यान होता है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यह निश्चयनय से कहे गये प्रत्याख्यान के स्वरूप का आख्यान है।
यहाँ व्यवहारनय की अपेक्षा मुनिराज दिन-दिन में भोजन करके फिर योग्यकाल तक के लिए अन्न, पीने योग्य पदार्थ, खाद्य और लेह्य की रुचि छोड़ते हैं - यह व्यवहारप्रत्याख्यान का स्वरूप है।