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________________ नियमसार गाथा ९३ अब इस गाथा में यह कहते हैं कि एकमात्र ध्यान ही उपादेय है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - झाणणिलीणो साहू परिचागं कुणइ सव्वदोसाणं। तम्हा दु झाणमेव हि सव्वदिचारस्स पडिकमणं ।।१३।। (हरिगीत) निजध्यान में लवलीन साधु सर्व दोषों को तजे। ~g Bg {b E'h Ü na hrg drey Mrar a {VH&_U 1883|| ध्यान में लीन साधु सब दोषों का परित्याग करते हैं। इसलिए वस्तुतः ध्यान ही सभी अतिचारों का प्रतिक्रमण है। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यहाँ एकमात्र ध्यान ही उपादेय है - यह कहा गया है। कोई अति आसननभव्य परमजिन योगीश्वर साधु, अध्यात्मभाषा में पूर्वोक्त स्वात्माश्रित निश्चय धर्मध्यान में लीन होता हुआ अभेदरूप से स्थित रहता है, अथवा सभीप्रकार के क्रियाकाण्ड के आडम्बर से रहित, व्यवहारनयात्मक भेद संबंधी और ध्यान-ध्येय संबंधी विकल्पों से रहित, सभी इन्द्रियों के अगोचर परमतत्त्व - शुद्ध अन्त:तत्त्व संबंधी भेदकल्पना से निरपेक्ष निश्चय शुक्लध्यान में स्थित रहता है; वह साधु सम्पूर्णतः अन्तर्मुख होने से प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त मोह-राग-द्वेष का परित्याग करता है। इससे यह सहज ही सिद्ध होता है कि अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निश्चय धर्मध्यान और निश्चय शुक्लध्यान – ये दो ध्यान ही सभीप्रकार के अतिचारों के प्रतिक्रमण हैं।" आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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