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________________ नियमसार अनुशीलन - प्रतिक्रमण, प्रतिसरण, परिहार, धारणा, निवृत्ति, निन्दा, गर्हा और शुद्धि- ये आठ प्रकार के विषकुंभ हैं; क्योंकि इनमें कर्तृत्वबुद्धि संभवित है। __ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “विकल्प टूटकर चैतन्य के अमृतस्वरूप में लीन होना ही अमृत है और उसमें राग का विकल्प उठना ही विष है; क्योंकि राग चैतन्यानन्द को लूटनेवाला है। अज्ञानी की तो बात ही नहीं है। अरे! मुनि को चैतन्य का भान होने पर भी जो प्रायश्चित्त आदि का विकल्प आता है, उसको यहाँ निश्चय से विष कहा है। दोषरहित चैतन्यस्वभाव में लीनता ही अमृतमय प्रतिक्रमण है। बीच में जो शुभराग आता है, उसे मुनिराज निश्चय से विष समझते हैं, अज्ञानी उस विकल्प को धर्म का कारण मानते हैं।" __ प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण के विषकुंभ और अमृतकुंभ के संदर्भ में विशेष जानकारी के लिए समयसार गाथा ३०६ व ३०७ एवं उनकी आत्मख्याति टीका व उसमें समागत कलशों का अध्ययन सूक्ष्मता से किया जाना चाहिए । उक्त प्रकरण संबंधी अनुशीलन का अध्ययन भी उपयोगी रहेगा।।४४।। इसके बाद तथा चोक्तं समयसारव्याख्यायाम् - तथा समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में कहा है – लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है - (वसंततिलका) यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतं तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । तत्किं प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः किं नोर्ध्वमूर्ध्वमधिरोहति निष्प्रमादः॥४५॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ७४७-७४८ २. समयसार, श्लोक १८९
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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