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नियमसार अनुशीलन __उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि उन्मार्ग को छोड़कर वीतरागीसर्वज्ञ द्वारा प्रणीत जिनमार्ग को धारण करना ही प्रतिक्रमण है।
तात्पर्य यह है कि शंका-कांक्षा आदि दोषों से रहित निश्चय सम्यग्दृष्टि जीव जब जिनेन्द्रकथित महाव्रतादि धारण करनेरूप व्यवहारमार्ग और अपने भगवान आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और रमणतारूप निश्चयमार्ग को धारण करता है, तब मुनिदशा को प्राप्त वह निश्चय सम्यग्दृष्टि स्वयं ही प्रतिक्रमणस्वरूप होता है ।।८६ ।। ___ इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा चोक्तं प्रवचनसार व्याख्यायां - तथा प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में भी कहा है - ऐसा कहकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जो इसप्रकार है -
( शार्दूलविक्रीडितम् ) इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरैरुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्बह्वीः पृथग्भूमिकाः ।
आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यतिः सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ।।४१॥
(मनहरण कवित्त ) । उतसर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा।
भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है।। पुराणपुरुषों के द्वारा सादर है सेवित जो।
उसे प्राप्त कर संत हुए जो पवित्र हैं। चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप।
.. जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में। क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके।
सभी ओर से सदा वास करो निज में।।४।। हे मुनिवरो! इसप्रकार विशेष आदरपूर्वक पुराण पुरुषों के द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा पृथक्-पृथक् अनेक भूमिकाओं में व्याप्त चारित्र को प्राप्त करके, क्रमश: अतुलनिवृत्ति करके, चैतन्यसामान्य और १. प्रवचनसार, कलश १५