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गाथा ८३ : परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार व्यवहार प्रतिक्रमण है। उसका यहाँ खण्डन करते हुए आचार्य कहते हैं कि वचनरचना और शुभभाव के ऊपर का लक्ष छोड़ देना, परमार्थप्रतिक्रमण है । जो मुनिराज अपने कारण परमात्मा को ध्याते हैं, उनको निश्चयप्रतिक्रमण होता है।' ___ ऐसे वैराग्यवन्त मुनि अशुभभाव से छूटे हुए हैं। स्वभाव में जबतक पूर्णरूपेण स्थिर नहीं रह पाते, तबतक शुभभाव होते हैं और शास्त्रकार ने जो प्रतिक्रमण की विधि कही है तथा विविध वचनरचना की है, उसके ऊपर लक्ष जाता है और उसे सविनय पढ़ते हैं । शब्दोच्चारण की शुद्धता का ध्यान रखते हुए पठित सूत्रों पर शुभराग के समय लक्ष जाता है, उस लक्ष को भी छोड़कर जब मुनि अपने शुद्धस्वभाव में एकाग्र होते हैं; तब संसार की मूलग्रन्थि का अर्थात् समस्त राग-द्वेष का नाश करते हैं।
मुनि संसार का मूल राग-द्वेष-मोह का निवारण करके अपने अखण्ड आनन्दमय निजकारणपरमात्मा में एकाग्र होते हैं, उनको यथार्थ प्रतिक्रमण होता है और वीतरागीदशा प्रकट होती है।"
अशुभ वार्तालाप से विरक्त होकर जिनागम उल्लिखित प्रतिक्रमण पाठ को बोलकर जो प्रतिक्रमण मुनिराजों द्वारा किया जाता है; उसे व्यवहार प्रतिक्रमण कहते हैं। उसमें भूतकाल में हुए दोषों का उल्लेख करते हुए प्रायश्चित्त पूर्वक उनका परिमार्जन किया जाता है। यह व्यवहार प्रतिक्रमण शुभभाव रूप होता है, शुभ वचनात्मक होता है। इसमें अशुभभाव और अशुभवचनों की निवृत्ति तो होती है; शुभभाव और शुभवचन से निवृत्ति नहीं होती; किन्तु परमार्थ प्रतिक्रमण में, निश्चय प्रतिक्रमण में शुभवचन और शुभभावों से भी निवृत्ति हो जाती है।
यह परमार्थ प्रतिक्रमण अखण्डानन्दमय निजकारणपरमात्मा के ध्यानरूपहोता है। ध्यान रहे इस अधिकार का नाम ही परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार है। यही कारण है कि यहाँ परमार्थ प्रतिक्रमण पर विशेष जोर दिया जा रहा है।।८३॥ १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ६५८ २. वही, पृष्ठ ६५८-६५९
३. वही, पृष्ठ ६५९