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गाथा ११६ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
२०५ कहकर उसके कारणरूप त्रिकाली प्रायश्चित्तस्वरूप आत्मा को बताया है। आत्मा तीनों काल प्रायश्चित्त स्वरूप है। उसी में से पर्याय में प्रायश्चित्त प्रगट होता है । यदि द्रव्य प्रायश्चित्त स्वरूप न हो, तो पर्याय में प्रायश्चित्त कहाँ से प्रगट होता है।
इसप्रकार यहाँ द्रव्य-पर्याय की संधिपूर्वक कथन किया है। जैसे आत्मा में सर्वज्ञशक्ति त्रिकाल है, तो पर्याय में सर्वज्ञता प्रगट होती है; उसीप्रकार वस्तु त्रिकाल वीतरागी प्रायश्चित्तस्वरूप है, तो उसमें से पर्याय में वीतरागी प्रायश्चित्त प्रगट होता है। बस, धर्मी को तो अन्तर्मुख होकर स्वभाव में ढलना है, प्रायश्चित्त सहज ही प्रगट होता है।
निमित्त या विकल्प का आलम्बन वास्तविक प्रायश्चित्त नहीं है। त्रिकाल प्रायश्चित्तस्वरूप परमधर्मी को अपने आत्मा के अवलम्बन से ही निश्चयप्रायश्चित्त प्रगट होता है और वही मुक्ति का कारण है।
इसलिए जो नित्यस्वभाव को नित्य धारण करते हैं अर्थात् प्रतिसमय उसका अवलम्बन करते हैं, ऐसे परमसंयमी साधु को निश्चियप्रायश्चित्त होता है।"
उक्त गाथा में यह कहा गया है कि उत्कृष्ट ज्ञान का नाम ही चित्त है; क्योंकि ज्ञान, बोध और चित्त एकार्थवाची ही हैं। प्रायः शब्द उत्कृष्टता का सूचक है; इसप्रकार उत्कृष्ट ज्ञान ही प्रायश्चित्त है। यही कारण है कि उत्कृष्टज्ञान को धारण करनेवाले परमसंयमी सन्तों के ही निश्चयप्रायश्चित्त होता है।।११६|| इसके बाद टीकाकार एक छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार है -
(शालिनी) यः शुद्धात्मज्ञानसंभावनात्मा
प्रायश्चित्तमत्र चास्त्येव तस्य। निर्धूतांहःसंहतिं तं मुनीन्द्रं
वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम् ।।१८३।। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९७७
२. वही, पृष्ठ ९७८