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नियमसार अनुशीलन इन तीन प्रकारों द्वारा क्रोध को जीतकर, मार्दवभाव द्वारा मान कषाय को, आर्जवभाव से माया कषाय को और परमतत्त्व की प्राप्तिरूप संतोष से लोभ कषाय को योगीजन जीतते हैं।"
स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"यह सम्यग्ज्ञान सहित जीव की क्षमा की बात है। अन्दर में भान है कि मेरा स्वभाव तो शांत है, इसमें जो क्रोध की वृत्ति है, वह दुःखदायक है; वह मेरा स्वरूप नहीं है। - ऐसे भानसहित जीव की क्षमा की यह बात है।
बाहर में कोई निंदा करे, तो विचारे कि निंदावाचक शब्द तो जड़ हैं, उनसे मेरे आत्मा का नुकसान नहीं होता। मेरा अपराध हुए बिना ही मिथ्यादृष्टि जीव बिना कारण ही मुझे त्रास देने, दुखी करने का उद्यम . करता है, सो वह तो मेरे पुण्य से दूर होगा - ऐसा विचार कर क्रोध भाव
को उत्पन्न ही न होने देना जघन्यक्षमा है। ___'मैं इसे मार के फैंक दूंगा' पापी जीव के ऐसा परिणाम होते हुए भी मेरे पुण्योदय होने से वह मुझे मार नहीं सका - ऐसा विचार कर क्षमा धारण करना मध्यमक्षमा है। ___ जड़ शरीर को सिंह, बाघ खाता हो, कोई तलवार से छेदता हो, चीरता हो, घानी में पेलता हो; तो धर्मात्मा ज्ञानी जीव ऐसा विचार करते हैं कि मैं तो अमूर्त चैतन्यब्रह्म हूँ, मेरा वध या घात होता ही नहीं है। मेरा विनाश तो इन्द्र के वज्र से भी नहीं होता - ऐसा जानकर अपने अन्तर उपशम रस में स्थिर रहना उत्तमक्षमा है।
ज्ञानानंदस्वभाव के आश्रय से क्रोध, मान, माया और लोभ को जीतना प्रायश्चित्त है।"
उक्त गाथा की टीका में टीकाकार मुनिराज क्षमा को तीन रूपों में
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९७१ २. वही, पृष्ठ ९७१ ४. वही, पृष्ठ ९७२
३. वही, पृष्ठ ९७२ . ५. वही, पृष्ठ ९७४