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गाथा ११४ : शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकार
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यहाँ क्रोधादि भावों को स्वकीय कहा है, क्योंकि यदि क्रोधादिभाव कर्मजनित हों तो स्वयं को प्रायश्चित्त लेने का प्रसंग ही नहीं आता । जो भाव अपने द्वारा किये गये हों, अपनी भूल के कारण अपने में उत्पन्न हुए हों, उनका क्षय करना ही प्रायश्चित्त है । क्रोधादि समस्त विभाव भावों के क्षय की भावना में तत्पर रहना और निजगुण का चितवन करना ही निश्चय से प्रायश्चित्त है । दोषों का प्रायश्चित्त 1 करने के साथ निजगुणों का चिन्तन करना कहा है, इसलिए सर्वप्रथम तो क्षणिक दोष और त्रिकाली गुणों का यथार्थ स्वरूप जानना है । बाद में स्वभाव के अवलम्बन से रागादिभावों का क्षय करना निश्चय से प्रायश्चित्त है ।
निज कारणपरमात्मा का अवलम्बन लेते ही सहज वीतरागी परणति राग-द्वेषादि विभाव भावों की उत्पत्ति ही नहीं होती, इसलिए उसका नाम निश्चय प्रायश्चित्त है ।
श्रद्धा - ज्ञान में स्वभाव की पहिचान करना मिथ्यात्व के दोष का प्रायश्चित्त है और स्वभाव में लीनता होने पर वीतरागी मुनिदशा प्रगट होना अस्थिरता के दोष का प्रायश्चित्त है। ऐसा निश्चय प्रायश्चित्त मुक्ति का कारण है ।
अन्तर में स्वतत्त्व की पहिचान करनेरूप विद्या ही सच्ची विद्या हैं और यही मोक्ष का कारण है। जो विद्यमान तत्त्व को जाने, उसका नाम विद्या है। विद्यमान ऐसा जो अपना त्रिकाल स्वभाव, त्रिकाल गुण और इनके आश्रय से उत्पन्न वीतरागी पर्याय । त्रिकाली के आश्रय से उत्पन्न I पर्याय का कभी अभाव नहीं होता और इसका नाम ही सच्ची विद्या है । यही मोक्ष की कारण है और इसी का नाम प्रायश्चित्त है । ३"
इस गाथा और उसकी टीका में यह कहा गया है कि निज गुणों का चितवन और क्रोधादि विकारी भावों के क्षय, क्षयोपशम और उपशम
१. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९६५-९६६ २. वही, पृष्ठ ९६६
३. वही, पृष्ठ ९६८- ९६९