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नियमसार अनुशीलन
है और वह त्रिकाली ध्रुव आत्मा मैं ही हूँ। मेरा अपनापन भी एकमात्र इसी में है।
उक्त गाथाओं का भाव तात्पर्यवृत्तिकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"अब यहाँ शुद्धात्मा को सकल कर्तृत्व का अभाव दिखाते हैं । बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह का अभाव होने के कारण मैं नारकपर्याय रूप नहीं हूँ। संसारी जीवों के बहुत आरंभ और परिग्रह व्यवहार से होता है; इसलिए उसे नरकायु के हेतुभूत सभी प्रकार के मोह-राग-द्वेष होते हैं, परन्तु वे मुझे नहीं हैं; क्योंकि शुद्धनिश्चयनय के बल से अर्थात् शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा शुद्धजीवास्तिकाय में वे नहीं होते ।
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तिर्यंचपर्याय के योग्य मायामिश्रित अशुभकर्म का अभाव होने से मैं तिर्यंचपर्याय के कर्तृत्व से रहित हूँ ।
मनुष्यनामकर्म के योग्य द्रव्यकर्म और भावकर्मों का अभाव होने से मुझे शुद्धनिश्चयनय से मनुष्यपर्याय नहीं है ।
‘देव' इस नामवाली देवपर्याय के योग्य सुरससुगंधस्वभाववाले पुद्गलद्रव्य का अभाव होने से निश्चय से मुझे देवपर्याय नहीं है।
चौदह-चौदह भेदवाले मार्गणास्थान, जीवस्थान और गुणस्थान शुद्धनिश्चयनय से परमभाव स्वभाववाले आत्मा को ( मुझे ) नहीं है ।
मनुष्य और तिर्यंचपर्याय की काया के वयकृत विकार से उत्पन्न होनेवाले बाल, युवा, प्रौढ और वृद्ध आदि अवस्थारूप उनके स्थूल, कृश आदि अनेक प्रकार के भेद शुद्धनिश्चयनय के अभिप्राय से मेरे नहीं हैं।
सत्ता, अवबोध, परमचैतन्य और सुख की अनुभूति में लीन - ऐसे विशिष्ट आत्मतत्त्व को ग्रहण करनेवाले शुद्धद्रव्यार्थिकनय के बल से मुझे सभी प्रकार के मोह-राग-द्वेष नहीं हैं ।
सहजनिश्चयनय से सदा निरावरणस्वरूप, शुद्धज्ञानरूप, सहज