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गाथा १०३ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार
___ (दोहा) जिनका चित्त आसक्त है निज आतम के माँहि।
सावधानी संयम विर्षे उन्हें मरणभय नाँहि ।।१३९।। जिनकी बुद्धि चैतन्यतत्त्व की भावना में आसक्त है - ऐसे यति यम में प्रयत्नशील रहते हैं; संयम में सावधान रहते हैं। वह यम (संयम) यातनाशील यम अर्थात् मृत्यु के नाश का कारण है। ___ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “अरे जीव! यदि तू शान्ति का इच्छुक है, जन्म-मरण की यातना से छूटना चाहता है; तो ऐसी मुनिदशा प्राप्त करना ही पड़ेगी। यतिगण अपने संयम में प्रयत्नशील वर्तते हुए यातनामय यम का नाश करते हैं। जो ऐसा वीतरागी संयम प्रगट करते हैं, उनको पुनः मातृकुक्षि में अवतरित नहीं होना पड़ता, उनके दुःखमय मरण का नाश हो जाता है। अहो जीवो! एक चैतन्य ही शरण है !! ___मरण से बचना हो तो उसका उपाय यह संयम है और यह संयम
चैतन्यमूर्ति आत्मा के भान बिना प्रगट नहीं होता; इसलिए आत्मा को पहचानो, वही एक शरण है।" ___इस छन्द में यही कहा गया है कि जिनकी बुद्धि आत्मानुभव में आसक्त है; ऐसे आत्मानुभवी मुनिराज चारित्र के निर्दोष पालन में सदा सावधान रहते हैं। यही कारण है कि उन्हें मृत्यु का भय नहीं सताता ||१३९|| १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८३६ - वस्तुतः लोक में जो कुछ भी है वह सब सत् है, असत् कुछ भी नहीं है; किन्तु लोगों का कहना है कि हमें जगत में असत्य का ही साम्राज्य दिखाई देता है, सत्य कहीं नजर ही नहीं आता। पर भाई ! यह तेरी दृष्टि की खराबी है, वस्तुस्वरूप की नहीं। सत्य कहते ही उसे हैं, जिसकी लोक में सत्ता हो।
-धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ ७६