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________________ १०५ गाथा १०१ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार "जैसे नन्दनवन सदा हरा-भरा रहता है; वैसे ही जिसे शरीर की ममता है, उसे तो संसार में जन्म-मरण होता ही रहेगा; क्योंकि उसकी शरीररूपी जलनाली संसार को नन्दनवन जैसा हरा-भरा बनाये रखेगी। जो शरीर का पोषण करेगा, वह सदा शरीर में रहेगा और अशरीरी सिद्ध कभी भी नहीं हो सकेगा। एक तरफ कारणपरमात्मा बतलाया और दूसरी तरफ शरीर बतलाया। शरीर के कारणभूत द्रव्यकर्म और भावकर्म से रहित कारणपरमात्मा है; अतः आत्मा एक है। अनन्तान्तकाल से शरीर की ममता कर रहा है, परन्तु शरीर के उन अनन्त रजकणों में से एक भी परमाणु आज तक अपना नहीं हुआ। चाहे जितना परिश्रम करे, तीनकाल के परिश्रम को एकत्र करे; तथापि एक भी परमाणु अपना होनेवाला नहीं है। ___ हाँ, यदि आत्मा की रुचि करके आत्मा की प्राप्ति का पुरुषार्थ करे तो अल्पकाल में ही मुक्ति हुए बिना रहे नहीं। ____ अहो ! 'मैं देह से अत्यन्त भिन्न कारणपरमात्मा हूँ' - ऐसा भान यदि न करे तो संसाररूपी नन्दनवन भी सूखनेवाला नहीं है । जैसे अशरीरी सिद्ध भगवान हैं, वैसा ही मेरा आत्मा है; मेरा आत्मा शरीर से तो भिन्न है और शरीर के हेतुभूत द्रव्यकर्म और भावकर्म से भी भिन्न है; इसलिए मैं तो एक हूँ, त्रिकाल एकरूप कारणपरमात्मा ही हूँ; शरीर और पुण्यपाप तो अनेक हैं और मैं उनसे रहित एक हूँ - ऐसे आत्मा की पहचान करना मुक्ति का उपाय है। चैतन्यस्वरूप के अलावा बाहर के लक्ष से जितने शुभाशुभभाव होते हैं, वे सब क्रियाकाण्ड के आडम्बर हैं। बाहर के लक्ष से तो अनेक प्रकार के विकल्प का कोलाहल होता है । चैतन्य में कोई कोलाहल है नहीं, वह तो उपशमरस का कन्द शान्त शान्त है, उसमें बाहर का १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८२३ २. वही, पृष्ठ ८२३ ३. वही, पृष्ठ ८२३
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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