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________________ गाथा १०१ : निश्चयप्रत्याख्यानाधिकार भिन्न अकेले आत्मा को जानकर, उसमें एकाग्र होने पर प्रत्याख्यान हो और जन्म-मरण का दुःख मिट जाय । आत्मा स्वयं ही जन्म-मरण करता है और स्वयं ही निर्वाण पाता है।'' इस गाथा और उसकी टीका के संदर्भ में विचारणीय बिन्दु ये हैं कि गाथा में जीवदि पद का प्रयोग है, जिसका सीधा-सच्चा अर्थ जीता है होता है, जिन्दा रहना होता है; पर यहाँ इसका अर्थ जन्मना – जन्म लेना किया है। यदि जीवदि का अर्थ जिन्दा रहना माने तो यहाँ जीवनमरण - ऐसी जोड़ी बनती है; परन्तु जीवदि का जन्मता है - यह अर्थ करने से जन्म-मरण - ऐसी जोड़ी बनी। ___ गाथा की ऊपर की पंक्ति में मरदि पद का प्रयोग है और नीचे की पंक्ति में मरणं जादि कहा गया है। मरदि का अर्थ मरता है होता है और मरणं जादि का अर्थ मरण होता है या मरण को प्राप्त होता है होता है। यद्यपि बात लगभग एक ही है; तथापि यहाँ दो जोड़े बनाये गये हैं। पहला जन्म-मरण का और दूसरा मरण होने व मुक्त होने का। इसप्रकार गाथा का अर्थ यह होता है कि जीव जन्म-मरण में अकेला है और मरण तथा मुक्ति में भी अकेला ही है। टीका में मरण पद के भी दो प्रकार बताये गये हैं। पहला मरण और दूसरा नित्यमरण । एक देह को छोड़कर दूसरी देह धारण करने को मरण और प्रतिसमय आयुकर्म के निषेकों के खिरने को, प्रतिसमय आयु के क्षीण होने को नित्यमरण कहा है। ____ मरण और मुक्ति में यह अन्तर है कि एक देह को छोड़कर दूसरी देह को धारण करने को मरण और देह के बंधन से सदा के लिए मुक्त हो जाने को मुक्ति कहते हैं। __इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका का भाव यही है कि यह आत्मा जन्म से लेकर मरण तक के सभी प्रसंगों में तथा संसारभ्रमण और मुक्ति प्राप्त करने में सर्वत्र अकेला ही है; कहीं भी किसी का किसी १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ८१६
SR No.007131
Book TitleNiyamsar Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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