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जैन धर्म: सार सन्देश इन बातों पर ध्यान देते हुए हमें धर्म के वास्तविक स्वरूप को भली-भाँति समझकर दृढ़ संकल्प के साथ अविलम्ब इसे अपने जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग बना लेना चाहिए।
जैन धर्म की उदार दृष्टि धर्म के मर्म को न समझने के कारण धर्म के नाम पर समाज में अनेक बुराइयाँ और कुरीतियाँ फैली हुई हैं और धर्म के सम्बन्ध में लोगों का विचार संकुचित और पक्षपातपूर्ण बन गया है। पर जैन धर्म में कुछ ऐसे तत्त्व हैं जिन्हें ठीक से ग्रहण करने पर हम इन कुरीतियों से बच सकते हैं और अपने विचार को उदार और पक्षपातरहित बनाये रख सकते हैं।
सर्वप्रथम, जैसा कि हम देख चुके हैं, जैन धर्म का मूल उद्देश्य अपनी आत्मा के सच्चे स्वरूप को पहचानकर, अर्थात् इसके सच्चे स्वरूप का अनुभव प्राप्त कर, इसे परमात्मरूप बनाना है। चूंकि सबकी आत्मा मूलरूप में एक समान है और सभी एक समान ही सुख की चाह रखते हैं, इसलिए जैन धर्म का स्वाभाविक लक्ष्य अपने और समस्त विश्व को सुखी और शान्तिपूर्ण बनाना है। यह साम्प्रदायिक संकीर्णता और जाति, वर्ग या समाज की पारस्परिक द्वेष-भावना से दूर रहकर सबकी समानता दिखलाते हुए सबमें पस्स्पर सद्भाव, सहानुभूति, मित्रता और प्रेम को स्थापित कर सबको विश्व-प्रेम और विश्व-शान्ति की ओर प्रेरित करना चाहता है।
जैन धर्म का स्याद्वाद सिद्धान्त की उदारता का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है। स्याद्वाद का मूल व्यावहारिक उद्देश्य है अपनी दृष्टि, विचार और कथन को संकीर्ण, एकांगी, एकपक्षीय और पक्षपातपूर्ण न बनाकर इन्हें व्यापक, उदार, निष्पक्ष और सर्वग्राही बनाने का प्रयत्न करना। इस प्रकार यह सिद्धान्त स्वाभाविक रूप से जैन धर्म की दृष्टि को उदार बनाता है।
जैन धर्म की तीसरी महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह अपने को किसी एक युग या किसी एक समय में उत्पन्न किसी एक महात्मा या महापुरुष के उपदेश पर आधारित न मानकर अनादिकाल से आते रहनेवाले पूर्ण रूप से