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जैन धर्म का स्वरूप जो मोह, क्षोभ आदि विकारों से सर्वथा रहित है। इसी बात पर जोर देते हुए कानजी स्वामी कहते हैं:
जैन धर्म किसी घेरे में, सम्प्रदाय में, वेष में या शरीर की क्रिया में नहीं है, किन्तु आत्मस्वरूप की पहिचान में ही जैन धर्म है-जैनत्व है।38
वे फिर कहते हैं:
इसलिए ज्ञानीजन यही कहते हैं कि सर्वप्रथम सम्यक् पुरुषार्थ के द्वारा आत्मस्वरूप को जानो, उसी की प्रतीति-रुचि-श्रद्धा और महिमा करो। समस्त तीर्थंकरों की दिव्यध्वनि और सभी सत्शास्त्रों के कथन का सार यही है।39
वास्तव में मोह-क्षोभ से परे आत्मा के साम्य भाव को प्राप्त करना ही सच्चा धर्म है, जैसा कि गणेशप्रसाद जी वर्णी ने भी बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहा है:
आत्मा की उस निश्चल परिणति का नाम धर्म है जहाँ मोह और क्षोभ को स्थान नहीं। वे फिर कहते हैं: धर्म का लक्षण मोह और क्षोभ का अभाव है। जहाँ मोह और क्षोभ है वहाँ धर्म नहीं।
यहाँ इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि आत्मा के स्वरूप को जाने बिना, या यों कहें कि अपनी स्वरूपलीनता की अवस्था को प्राप्त किये बिना, राग-द्वेष या मोह-क्षोभ से पूरी तरह छुटकारा पाना सम्भव नहीं है। इसीलिए हीरालाल जैन ने बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहा है:
जो जीव राग-द्वेष से छूटना चाहते हैं उन्हें सबसे पहले आत्म-स्वरूप का जानना आवश्यक है; क्योंकि आत्म-स्वरूप को जाने बिना दुःखों से या राग-द्वेष से मुक्ति मिलना सम्भव नहीं है।42