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________________ अन्तर्मुखी साधना 299 मुनिगणों से सेवनीय हैं और समस्त जगत् के हितू (हितैषी) हैं। आप इन्द्रियों के समूह को रोकनेवाले, विषय रूप शत्रुओं का निषेध करनेवाले, रागादिक सन्तान (रागादि की चली आयी परम्परा) को नष्ट करनेवाले और संसाररूपी अग्नि को बुझाने के लिए मेघ के समान हैं। आपने दिव्यरूप धारण किया है, आप धीर अर्थात् क्षोभ (आकुलता) रहित और निर्मल ज्ञानरूपी नेत्रवाले हैं। आपका विभव (ऐश्वर्य) देव और योगीश्वरों की कल्पना से परे है। जिसने पृथ्वीतल को पवित्र किया है तथा उद्धरण किया है तीन जगत् को और मोक्ष मार्ग का निरूपण करनेवाला है, अनन्त है और जिसका शासन पवित्र है, तथा जिसने अपने भामंडल से (प्रकाश मण्डल से) सूर्य को आच्छादित किया है, कोटि चंद्रमा के समान प्रभा का धारक है, जो जीवों का शरणभूत है, सर्वत्र जिसके ज्ञान की गति है, जो शान्त है, दिव्यवाणी में प्रवीण है, तथा इन्द्रियरूपी सों के लिए गरुड़ समान है, समस्त अभ्युदय का मंदिर है, तथा दुःखरूप समुद्र में पड़ते हुए जीवों को हस्तावलंबन देनेवाला है और जो दिव्य पुष्पवृष्टि, आनक अर्थात् दुंदुभि बाजों तथा अशोक वृक्षों सहित विराजमान है, तथा रागरहित (वीतराग) है, प्रातिहार्य महालक्ष्मी से चिह्नित है, और परम ऐश्वर्य सहित (परमेश्वर) है। इस प्रकार अरहन्त भगवान् के ज्योतिर्मयस्वरूप तथा उनकी अपार महिमा और प्रभुता को दिखलाकर शुभचन्द्राचार्य उनके ध्यान का फल बतलाते हुए कहते हैं: उपर्युक्त सर्वज्ञ देव का ध्यान करनेवाला जो ध्यानी अन्य शरण से रहित हो, अपने मन को साक्षात् उसमें ही संलीन करता है, वह तन्मयता को पाकर, उसी स्वरूप को प्राप्त होता है। योगी (ध्यानी मुनि या साधक) उस सर्वज्ञ देव परम ज्योति को आलंबन करके उसके गुणग्रामों में (गुण समूहों में) रंजायमान होता हुआ मन में विक्षेप रहित (आवेगरहित) होकर, उसी स्वरूप को प्राप्त होता है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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